भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन , kumari Nirmala Yadav (DSVV)

                                         स्वकथन

      प्रत्येक सफलता के पीछे यह सत्य छिपा होता है कि वह किसी संघर्ष का सुनिश्चित् परिणाम है। इसीलिए शायद विद्वानों को यह कहना पड़ा कि जीवन एक संघर्ष है।
जीवन की सच्चाई प्रकट करने वाले इस परिभाषा की प्रत्यक्ष अनुभूति मुझे तभी प्राप्त हो सकी जब मैंने अभिभावकत्व के स्नेहिल छाया से निकलकर बाहर की दुनिया में कदम रखा। साथ ही यह भी बोध हुआ कि द्वन्द्व भरा संघर्षों का मार्ग ही ऊँचे सोपानों तक पहुंचाता है।
इस सुअवसर को पूर्णता तक पहुंचाने तथा सार्थकता प्रदान करने में मेरा पुरुषार्थ तो एक निमित्त मात्र है। सही अर्थाें में इसका श्रेय उन लोगों को जाता है। जिनके आशीर्वाद, प्रेरणा, प्रोत्साहन व आत्मीयतापूर्ण व्यवहार तथा कुशल मार्गदर्शन के अभाव में इस परियोजना कार्य के पूरे होने की कल्पना भी करना दुष्कर है। मेरे सभी सहयोगियों के प्रति कृतज्ञता का भाव अभिव्यक्त करती हूँ।
सर्वप्रथम पूज्यवर माताजी को हृदय से धन्यवाद करती हूँ। अगले क्रम में हम अपने शोध प्रबंध परियोजना कार्य के निर्देशक डाॅ0 सी0आर0 कैवत्र्य सर का हृदय से धन्यवाद करती हूँ, जिन्होंने हमको उचित मार्गदर्शन प्रदान किया। जिनकी सहायता से यह परियोजना कार्य संपन्न हो सका।
प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से मेरे सभी सहयोगी जनों व इष्टमित्रों के प्रति हम यथायोग्य आभार व्यक्त करते हैं।
अंत में हम पुनः अपनी आराध्य सत्ता का स्मरण करते हुए यह परियोजना कार्य उनके श्री चरणों में समर्पित करते हैं।

दिनांक - 11/4/2015                                                                                 कु0 निर्मला यादव

(बी0ए0 तृतीय वर्ष)

 

भूमिका

  भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों द्वारा निभाई गई भूमिका के बारे में लिखा गया मेरा यह ‘‘परियोजना कार्य’’ के पीछे मूल में शायद यह विचार निहित हो कि आज के युवा वर्ग को राष्ट्र की मुक्ति के लिए साहसी युवा वर्ग के निःस्वार्थ उत्सर्ग बलिदान की याद दिलाई जाय। आधुनिक पूंजीवाद से अनेक बुराईयों तथा चिंताओं ने जन्म लिया, लेकिन सबसे बड़ी चिंता यही है कि लोग अपने अतीत से कट चुके हैं। वे इस बारे में जागरुक नहीं है तथा इस चेतना के बिना राष्ट्र, मनुष्यों का समूह मात्र बनकर रह जाता है।
यह परियोजना मैंने अनेक प्रकार की कठिनाईयों के  बीच लिखी है तथा मुझे निर्धारित तारीख को ध्यान में रखकर यह कार्य करना था। न तो यह कृति मूल ऐतिहासिक अध्ययन के लिए लिखी गई है न ही अलग परिप्रेक्ष्य से इसे नया रूप दिया गया है। इस पुस्तक लेखन के मूल में यही विचार निहित है कि आज के किशोर तथा युवकों को स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के अनेक अध्यायों में से किसी एक सुनहरे अध्याय की रोचकप्रद जानकारी दी जाए।
मुझे खेद है कि मैं आधुनिक भारत के अधिक लेखकों की कृति नहीं पढ़ सकी। उन पुस्तकों से क्रांतिकारियों की भूमिका के बारे में अधिक प्रबल एवं गहन विचारों की जानकारी मिलती। भले ही उन लेखकों ने क्रांतिकारियों के राजनैतिक सिद्धांत एवं व्यवहार के बारे में अधिक परिपक्व समझ- बूझ को बेहतर ढंग से प्रस्तुत किया है, वे भी इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि वे मध्यवर्गीय युवावर्ग में निश्चित् प्रकार के रुमानिवाद (रोमांटीनिज्म) को पार नहीं कर पाये और शहरों तथा छोटे कस्बों में जन- साधारण के बीच राष्ट्रवाद की लौ जगाने में निभाई  गई उनकी भूमिका से कोई लाभ नहीं मिल पाया।
उस काल के जोशीले युवा नेताओं पर उग्रवादी, आतंकवादी तथा क्रांतिकारियांे के लेबुल लगा दिये गये। प्रत्येक लेबुल या शब्द से इन युवा नेताओं का मात्र एक- एक प्रयास ध्वनित होता है लेकिन इसमें इनकी आकांक्षाओं तथा येागदान का समूचा क्षेत्र (ैचमबजतनउ) शामिल नहीं है। मैंने ‘क्रांतिकारी’ शब्द चुना है। क्रांति उनके संघर्ष का, स्वतंत्रता और सामाजिक प्रगति का ही माध्यम नहीं थी, बल्कि इन युवकों ने आत्मशुद्धि तथा बलिदान के लिए क्रांति को चुना। इनके द्वारा दी गई आहुति सांसारिक लक्ष्यों की गणना में फीट नहीं बैठती। आश्चर्य! ये साहसी युवक इस हद तक सफल रहे कि भले ही हम उनकी त्रासदीपूर्ण सीमाओं से अवगत हों, तब भी कुछ कहने से डरते हैं।
   

     दे0सं0वि0वि0 निर्मला यादव

      अपै्रल, 2015


‘‘मैं तुमसे इतना ही अलग हूँ जितना उत्त री ध्रुव से दक्षिणी धु्रव। लेकिन यदि मेरे साथ तुम्हारे जैसे मुट्ठी भर युवक होते, तो मैं बहुत पहले ही भारत का इतिहास बदल देता।’’

- चटगांव से बन्दी क्रांतिकारियों के नाम महात्मा गांधी का संदेश

‘‘क्रांति मानव जाति का अनन्य अधिकार है। क्रांति की वेदी पर यौवन धूपबत्ती की तरह है। ऐसे गरिमामय उद्देश्य के लिए इससे बड़ा बलिदान और कोई हो ही नहीं सकता। हम सन्तुष्ट हैं.......। क्रांति जिन्दाबाद!’’

                -मुकदमे के दौरान भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के द्वारा दिया गया बयान।


                                            विषय सूची

विषय पृ0 क्र0
स्वकथन
भूमिका
अध्याय- 1   
भारत में क्रांतिकारी आंदोलन की पृष्ठभूमि
अध्याय- 2
गदर आन्दोलन और गदर पार्टी
अध्याय- 3 
           बंगाल में क्रांतिकारी आंदोलन का उदय एवं प्रसार
अध्याय- 4
महाराष्ट्र में क्रांतिकारी आंदोलन 
अध्याय- 5
पंजाब एवं उत्तर भारत में क्रांतिकारी आंदोलन
नवजवान सभा
हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी (भ्ण्त्ण्।ण्)
हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र सेना (भ्ण्ैण्त्ण्।ण्)

 अध्याय - 6 
       क्रांतिकारी आंदोलन का विश्लेषण
निष्कर्ष 
सन्दर्भ सूची ग्रंथ 

                                                   अध्याय- 1

                                         भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन की पृष्ठभूमि:- 

    क्या भारत ने शांतिपूर्वक तथा अहिंसा से ही स्वाधीनता प्राप्त की थी? 1885 में गठित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत की शासन सŸाा संभाली जिसके बाद इस देश की जनता के प्रतिनिधियों के मतानुसार ब्रिटिश भारत का दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन हुआ। अपने लम्बे इतिहास में कांग्रेस ने विप्लव या विद्रोह, हिंसा के मार्ग को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया। क्रान्तिकारियों के बलिदान तथा देशप्रेम को सलाम करते हुए भी इन्होंने संघर्ष के हिंसा- मार्ग की भत्र्सना की, इसका खण्डन किया। 
       लेकिन मात्र इसी आधार पर क्रान्तिकारियों के इस मार्ग को मान्यता देने से इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि देश के स्वाधीनता संग्राम में इनका भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वस्तुतः समय- समय पर इस संग्राम के प्रति आम जनता को अभिप्रेरित करके इस मार्ग ने सार्थक भूमिका निभाई है। वैसे भी, प्रत्येक अवसर पर ब्रिटिश शासन के सहायक साधनों स्थलों पर आक्रमण करके तथा शासन को नीचा दिखाकर इस मार्ग के अनुयायियों ने अप्रत्यक्ष रूप से मदद की थी।1 यदि गांधी जी के नेतृत्व में चले अहिंसा आन्दोलन के नैतिक और आध्यात्मिक पहलू अलग कर दिए जाएँ, तो राजनैतिक सन्दर्भ में इस आन्दोलन के क्या मायने हैं? इस आन्दोलन का लक्ष्य जोश से जन- समूह, जन- आन्दोलन के द्वारा साम्राज्यवादी सŸाा पर दबाव डालना था ताकि सरकार भारत की स्वाधीनता की मांग पर यहाँ के नेताओं से बातचीत करने के लिये बाध्य हो जाए। कांग्रेस नेताओं ने शुरु में यह नहीं सोचा था कि एक ही झटके में स्वतन्त्रता मिल जाएगी। गोखले से गांधी जी तक, सभी नेता धीरे- धीरे चरण- दर- चरण पूर्ण स्वतन्त्रता की ओर समूचे राष्ट्र को उन्मुख करना चाहते थे। इंग्लैण्ड का संवैधानिक इतिहास वहाँ की जनता की ऐसी गाथा है, जिसमें जनता ने धीरे- धीरे स्व- शासन या स्वराज हासिल किया।2 
  कभी - कभी क्रान्तिवाद को दूषित या विकृत घटनाक्रम के रूप में अभिव्यक्त करने के प्रयास किए गये हैं। निःसन्देह हमें इस मार्ग की कमियों से भी अवगत होना होगा। लेकिन, हमें संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों के कारण इस मार्ग का कम महत्व नहीं आंका जा सकता है। यह सही है कि आधुनिक भारत की प्रगति को मूर्त रूप देने से जुड़ी अनेक ताकतों और संसाधनों ने क्रान्तिकारी आन्दोलन के अभ्युदय में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। अतः अंतर्निहित कमियों के बावजूद, यह कहकर इस मार्ग का खण्डन नहीं किया जा सकता कि यह दृष्टिकोण कृत्रिम तथा विदेशी भूमि पर पनपा है तथा इसकी अपनी कोई ऐतिहासिक पृष्ठभूमि नहीं है। 
       निःसन्देह, औपनिवेशिक अंग्रेजी शिक्षा का लक्ष्य भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का तथा इसे बनाए रखना था। लार्ड मैक्याले ने इस शिक्षा का प्रयोजन शासकों तथा आज्ञाकारी भारतीय शासितों के बीच बिचैलियों की जमात तैयार करना बताया था। उन्होंने कभी भी यह कल्पना नहीं की थी कि उनके द्वारा स्थापित इस प्रणाली के अन्य परिणाम भी सामने आएंगे।3
      अनेक गैर- कानूनी प्रतिबंध लगाने के बावजूद दलित भारतीयों के मन में ब्रिटिश कानून और विनियमों के कारण से राज्य की सशक्त मशीनरी  मूल अधिकारों की उत्कट इच्छा उत्पन्न हुई। इसी के साथ- साथ, पश्चिमी विचारों और साहित्यों के अध्ययन ने नवशिक्षित भारतीयों के मन में राष्ट्रीय स्वाधीनता तथा व्यक्तिगत अधिकारों के विचार रोपे। पश्चिमी जगत के शिक्षावाद चाहते थे कि जहाँ अंग्रेजी शिक्षा से भारतीयों के मन में समृद्ध पश्चिमी साहित्य, अध्ययन के प्रति गहन निष्ठा उत्पन्न हो वहीं ये लोग देशज ज्ञान को हेय दृष्टि से देखें। यहाँ तक कि विद्यासागर जैसे वेदान्त के दार्शनिक सिद्धान्तों को गलत मानते थे। माइकेल मधुसूदन दŸा ने भी अंग्रेजी भाषा के कवि के रूप में अपनी पहचान बनाने के लिये जी- तोड़ मेहनत की थी। 
       लेकिन अंत में यह स्पष्ट हो गया था कि अंग्रेजी शिक्षा ने भारतीयों को अपने देश की विरासत की प्रशंसा करने तथा उसकी पुनः खोज के लिये भी प्रेरित किया था। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि देशी भाषाओं का पुनरुत्थान इन लोगों का ही दिया गया उपहार था। 
         ब्रिटिश शासन का महत्वपूर्ण प्रभाव यह पड़ा कि भारत को एक राज्य तथा एक राष्ट्र के रूप में देखने, सोचने की आधुनिक प्रवृŸिा विकसित हुई। लेकिन इस संकल्पना में भारत के अतीत की यह विशेषता शामिल नहीं की गई कि भारतीय सभ्यता में विविधता में एकता दिखाई देती है। तथापि विभिन्न प्रान्तों के अनुभवी लोगों में यह अंतर्दृष्टि अवश्य विकसित हुई थी। परन्तु आर्थिक और प्रशासनिक अवसंरचना में शिक्षा प्रणाली के माध्यम से ब्रिटिश साम्राज्य ने विविधता पर एकता की परत जबरदस्ती बिछाई। नव शिक्षित वर्ग के लिये ‘एक देश, एक जन’ विचार को मूर्त रूप देने में इससे सहायता मिली। अन्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ब्रिटिश लोगों ने एकता के इस विचार को मिटाने, दुर्बल बनाने के लिये अनेक प्रयास किए, नये- नये तरीके इजाद किये। लेकिन उन्होंने एकता की भावना उत्पन्न होने में निहित इस अप्रत्याशित तत्व की कल्पना भी नहीं की थी। ब्रिटिश दमन चक्र तथा भेदभावपूर्ण रवैये के प्रति पनपे इस आक्रोश के कारण देश के सभी भागों में रहने वाले भारतीय एक हो गए।4 
क्रान्तिकारी प्रवृŸिा के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए सरकार ने 1908 में न्यूजपेपर (अपराधों को भड़काना) एक्ट तथा 1910 में इण्डियन प्रेस एक्ट पारित किये। परवर्ती अधिनियम के अंतर्गत सरकार को प्रेस का गला घोंटने की अत्यधिक शक्तियाँ मिल गईं। अब समाचार पत्र निकालने के लिये यह जरुरी था कि सरकार के पास जमानत जब्त कर ली जाती थी। इसके अलावा कसूरवार अखबार के प्रकाशन पर रोक, पिं्रटिंग प्रेस की सीलिंग आदि जैसे कठोर दण्ड भी दिए जाते थे। 1922 में इस कठोर कानून को निरस्त कर दिया, लेकिन 1931 में सरकार ने द इण्डियन प्रेस इमरजेंसी पावर्स एक्ट, 1931 द्वारा समाचार पत्रों में किसी भी प्रकार की आलोचना पर रोक लगा दी।5
       लेकिन, 1860 के दशक के दौरान, भारतीय भाषाओं में पुनरुत्थान के जुड़े साहित्य के जरिए देश प्रेम की नई लहर उठी। देश प्रेम के गीत रचे जाने लगे, गाए जाने लगे। 1860 के दशक में ‘नील दर्पण’ जैसे नाटकों में ब्रिटिश जाति तथा उनके द्वारा बनाए गए औपनिवेशिक कानूनों के विरुद्ध उग्र विरोध प्रदर्शित किया जाने लगा, जिसके कारण लार्ड लिटन को ड्रामाटिक परफाॅर्मेंस एक्ट 1876 बनाना पड़ा। 
       लेकिन इस ‘स्वदेशी’ काल में अरविंदो घोष जैसे क्रान्तिकारियों के मन में उपन्यासकार बंकिमचन्द्र चटर्जी ‘ज्ञानी’ उनके उपन्यासों के पात्रों के प्रति आदरभाव था, जिनके उपन्यासों में व्याप्त जनून शिक्षित मध्यम वर्ग के दिलों पर गहरी छाप छोड़ी तथा ‘बंग दर्शन’  पत्रिका में उन्होंने राष्ट्रवादी विजन की आवश्यकता पर बल दिया। लेकिन ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रणाली के भीतर रहते हुए वे केवल आंशिक रूप में हिन्दू राष्ट्रवाद का प्रचार करने के लिये बाध्य थे। यद्यपि भारत पर ब्रिटिश शासन की संप्रभुता थी, वर्चस्व था, लेकिन इन्होंने कभी भी उनके विरुद्ध कोई प्रतिक्रिया अभिव्यक्त नहीं की। 
     परन्तु पाठकगण ने बंकिमचन्द्र की कृतियों में मौलिकता तथा मानसिक स्वतंत्रता देखी थी। उन्होंने पश्चिमी विचारधारा तथा आदर्शों में निहित गुण- अवगुणों के मूल्यांकन में चूके नहीं। उनमें मौजूद परिपक्वता तथा मानसिक स्वतन्त्रता के गुण इस तथ्य का स्पष्ट संकेत थे कि आधुनिक भारत का शिक्षित वर्ग मध्य वर्ग पश्चिम का अन्धानुकरण नहीं करेगा। 
उन्होंने अपने समय की दो प्रमुख एवं सशक्त धाराओं के प्रति अनुकूल अभिव्यक्ति की। ये धाराएँ थीं लोकतन्त्र और राष्ट्रवाद। औपनिवेशिक ढांचे में इन दोनों प्रवृŸिायों को प्रोत्साहित करना खतरे से खाली नहीं था, लेकिन इसके साथ- साथ ऐसा करना नामुमकिन भी था। बंकिमचन्द्र क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी नहीं थे। 
      यह सत्य है कि, वे शारीरिक कष्ट झेलने तथा अपने विचारों पर अडिग रहने मानसिक दबाव सहने के लिये मन से तैयार नहीं थे, न ही वे शहीदों की गरिमापूर्ण मृत्यु पाने के लिये उद्यत थे। लेकिन साथ ही वे अपने युग की बौद्धिक धाराओं के प्रति असंवेदनशील भी नहीं थे।6 
      यह भी सत्य है कि बंकिमचन्द्र ने निःस्वार्थ निष्ठा तथा मातृभूमि के गुणगान की प्रवृŸिा उत्पन्न की थी। बंकिम द्वारा चित्रित दुर्गा मां के रूप में मातृभूमि की छवि शक्ति तथा करुणा का प्रतीक है। और यह मातृभूमि आभारहित होने पर मां काली के प्रतीक रूप में चित्रित की गई थी। जिसके हाथ में गदा है। मां की खुशी के लिये उसके बच्चों को अपनी खुशी का बलिदान करना होगा। इस उपन्यास के अन्त में यह देखा गया है कि आदर्शवादी गुरु सत्यानंद को सलाह देता है कि वह हितैषी ब्रिटिश की छत्रछाया में (प्राकृतिक) ज्ञान अर्जित करे क्योंकि उस समय हिन्दू ऐसे ज्ञान के सम्पर्क में नहीं थे। महत्वपूर्ण बात यह है कि निराश सत्यानंद ब्रिटिश आधिपत्य से अपने देश को बचाने के लिये नाकाम होने पर विलाप कर रहा है। 
        तर्कयुक्त परामर्श तथा बंकिम चन्द्र के मार्मिक प्रभावशाली आह्वान की युवा पाठकों ने अनसुनी नहीं की। आश्चर्य नहीं कि ब्रिटिश विरोधी क्रान्तिकारियांे की पहली पीढ़ी मातृभूमि की शक्ति की देवी के रूप में पूजा करती थी। ‘आनंदमठ’ के ‘वंदेमातरम्’ गीत को राष्ट्रीय गीत का दर्जा दिया गया। और यह भी सही है कि शुरु से ही, बंगाली मुस्लिम वर्ग के शिक्षित वर्ग ने राष्ट्रवाद के हिंदू विचार को स्वीकार नहीं किया क्योंकि यह उनके लिये अपमानजनक था। 
मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि, 1870 से शिक्षित हिंदू वर्ग शिक्षित मुसलमानों के विरोध को दूर करने का प्रयास करने लगे। राजेंद्र, मित्रा, राजनारायण बासु, अक्षय कुमार सरकार, चंद्रनाथ वासु तथा हरप्रसाद शास्त्री आदि जैसे लेखकों ने सनातन हिंदू धर्म तथा समाज के गुणों का दावा करने के लिये भरसक प्रयास किए। भूदेव मुखोपाध्याय (कट्टर हिंदू) ने हिंदू- मुस्लिम एकता पर आधारित सशक्त पहचान बनाने का समर्थन किया था। इनकी दृढ़शक्ति के आगे महान हस्तियों के विचारों को मिली सापेक्ष सफलता के पीछे कारणरूप में औपनिवेशिक राज्य की धूर्त व्यवस्था निहित है। 
1890 में, विवेकानन्द अनेक कष्ट झेलने के बाद विश्व धर्म सभा (कांग्रेस) में भाग लेने के लिये शिकागो पहुँचे। उन्होंने आत्मा को झकझोरने वाला भाषण देकर उपस्थित श्रोतागण को वशीभूत कर लिया। उनके भाषण का मूल भाग यह था कि हिन्दूवाद प्राचीन एवं कलातीत रीति- रिवाजों में फंसा धर्म नहीं है। इस धर्म या मत में आधुनिक काल की मानव जाति को कुछ देने के लिये है।7
स्वामी विवेकानंद पश्चिम की प्रौ़द्य़ोगिकीय उन्नति की भूरि- भूरि प्रशंसा करते थे। आज भारत में पश्चिमी भौतिकवाद देश के उद्धार के लिये आया है। इसमें सभी जातियों और वर्गों के लिये उन्नति के नये द्वार खोल दिए हैं। छोटे से अल्प समुदाय के कब्जे में रखे खजाने के जवाहरात बहुमूल्य सम्पदा अब सभी के लिये है। उन्होंने कहा था-  ‘‘यह धर्म अब रसोईघर तक ही सिमट गया है। यह अलग रहने ‘मुझे छूना नहीं’ प्रवृŸिा पर टिका है। यदि ऐसा हो रहा तो एक सदी बाद हम सभी पागलखाने में होंगे।’’ 
उन्होंने भद्रजनों से अपील की कि स्वर्ग- नरक या आत्मा की किसे परवाह है? आपके सामने यह दुनिया पूरा संसार है। चारों ओर दरिद्रता और विपन्नता छाई है। आगे बढ़ो और कष्ट झेल रहे मनुष्यों की मदद करो, यदि जरुरत पड़े तो अपने जीवन की आहुति भी दे दो।
‘‘शास्त्रों की कौन परवाह करता है? यदि मैं पुरानी मान्यताओं में सराबोर देशवासियों में जागृति ला सकता हूँ जिससे वे अपने पैरों पर खड़े हो सकें तथा उन्हें नवीन कार्य संस्कृति की ओर प्रेरित कर सकता हूँ तो मैं इसके लिये हजार नरकों में हँसते- हँसते जान देने के लिये तैयार हूँ।’’8 
भूपेन्द्र नाथ दŸा ने समाज के प्रति विवेकानन्द की अपील इस प्रकार स्पष्ट की कि- ‘‘लोगों के पास आओ, छुआछूत हटाओ, जिम तथा पुस्तकालय खोलो, बंकिमचन्द्र को बार- बार पढ़ो, उनके लोकाचार एवं देशभक्त के आदर्शों का अनुसरण करो। मातृभूमि की सेवा आपका पहला कर्तव्य प्राथमिकता है।’’
क्रान्तिवाद का वैचारिक आधार राष्ट्रीयतावाद था। चाहे कुछ भी हो हिन्दूवाद किसी भी तरह से राष्ट्रवाद नहीं था। उस समय हिंदूओं की अंतर निहित धार्मिक वृŸिा को आंकने के बाद, उपयुक्त सैद्धान्तिक उद्धरणों से धर्म को राष्ट्रीयता के सांचे में ढालने का प्रयास किया गया था। लेकिन, राष्ट्रीयतावाद आधुनिक संकल्पना थी, अतः शिक्षित भारतीयों को पश्चिम से भी सीखना था। उन्हें पश्चिमी जगत् की विशेषताओं को भी ग्रहण करना था।
ब्रिटिश शासन की दमनात्मक नीति के परिणास्वरूप बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ से ही भारत में राष्ट्रीय जागृति की अपूर्व लहर फैल गई थी। कांग्रेस के नेतृत्व में चलाए जा रहे वैधानिक आंदोलनों पर से जनता का विश्वास समाप्त हो चला था। कांग्रेस के अंदर तिलक जैसे उभरे विचारधारा के नेता आ गये थे, जिनका कहना था कि जिस प्रकार रोटी मांगने से नहीं मिल सकती, उसी प्रकार स्वतंत्रता भी मांगने से नहीं मिल सकती, अपितु उसे दबाव द्वारा लेना पड़ता है। इस उग्रवादी विचारधारा का नेतृत्व लाल, बाल, पाल की त्रिमूर्ति कर रही थी। उग्रवादी विचारधाराओं के नेता ‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ के सिद्धान्त के आधार पर अंग्रेजी सŸाा के संघर्ष करना चाहते थे। यह संघर्ष शांतिपूर्ण होना था। इस विचारधारा के समर्थकों में आत्म बलिदान और स्वतंत्रता की भावना, प्रबल देश प्रेम तथा अंग्रेजी सŸाा के विरुद्ध तीव्र घृणा थी। अर्थात् ‘‘यहाँ के लोग सार्वजनिक आन्दोलन विदेशी वस्तुओं एवं शासन का बहिष्कार, स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग एवं राष्ट्रीय शासन व्यवस्था के समर्थक थे।’’9
 उपरोक्त विचारधारा के अतिरिक्त भारत में नवयुवकों का एक ऐसा
वर्ग था जो ह्यूम के शब्दों में- 
         ‘‘ऐसा कुछ कहना चाहते थे, जिसका अर्थ हिंसा होता।’’
यह हिंसा तथा आतंक द्वारा अंग्रेजों को भयभीत कर विदेशी शासन को जड़ से समाप्त कर देना चाहते थे। इन नवयुवकों में देशभक्ति, साहस, शौर्य व आत्मबलिदान की अटूट भावना थी। विश्वमित्र उपाध्याय ने इस वर्ग को ‘जुझारु राष्ट्रवादी’ की संज्ञा देते हुए कहा है- 
‘‘क्रान्तिकारियों का उद्देश्य तथा उसको प्राप्त करने का तरीका उदारवादियों और उग्रवादियों से भिन्न था। उदारवादी प्रशासनिक सुधार और नौकरियों में अधिक स्थान चाहते थे। बाद में चलकर उन्हांेंने किसी न किसी प्रकार के स्वशासन की मांग की थी। उग्रवादियों का लक्ष्य स्वराज्य था परन्तु यदि तत्काल इससे कम कोई चीज दी जाती तो वे भी स्वीकार कर लेते परन्तु क्रान्तिकारी ब्रिटिश साम्राज्य से पूर्णतः सम्बन्ध विच्छेद करने और मातृभूमि को मुक्त कराने का संकल्प किये हुए थे।’’10
सरकार जैसे- जैसे दमनात्मक नीति अपनाती थी वैसे ही इन क्रान्तिकारियों की हिंसा में आस्था दृढ़ होती जाती थी।
‘‘क्रान्तिकारियों का दर्शन और उनका नैतिक प्रेरणा स्त्रोत गीता तथा उसका यह सिद्धान्त था कि बुराई के विरुद्ध निःस्वार्थ संघर्ष करना चाहिए परन्तु क्रान्तिकारियों ने जो तरीके व साधन चुने वे हिन्दू राष्ट्रवाद द्वारा नहीं बल्कि फ्रांसिसी क्रान्ति, अमेरिकी स्वाधीनता संग्राम और इटली रूस और आइलैण्ड जैसे पश्चिमी देशों की क्रान्तिकारी समितियों के उदाहरण से प्रभावित थे। इनकी योजना गुप्त समितियाँ संचालित करना, हिंसा व शस्त्रों द्वारा धन एकत्र करना और अन्तोगत्वा विद्रोह करना था।’’
भारत में स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में क्रान्तिकारी विचारधारा के मानने को तैयार नहीं है। उनके अनुसार 1906 से 1914 तक के काल में भारत और विदेशों में 1922 से 1932 तक के काल में सरदार भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त, चंद्रशेखर आजाद और अन्य लोगों तथा 1941 से 1945 तक के नेताओं  सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में जो कार्य किए गए वह देश भक्ति की भावना से किए गए थे। बिटिश सŸाा के प्रति मात्र बदलने की भावना से प्रेरित होकर? इन इतिहासकारों के अनुसार ये मानसिक रूप से असंतुलित भारतीय युवा वर्ग के भावनात्मक, हिंसात्मक कार्य थे। जिनका न कोई लक्ष्य था और न  जिनके पीछे कोई विचारधारा या दर्शन था। इस प्रकार सोचने वालों के मस्तिष्क में यह बात शायद इसीलिये आई क्योंकि क्रान्तिकारियों ने किसी भी आस्था में जनता का साथ नहीं लिया और न ही अपने क्रिया- कलापों को आन्दोलन का रूप दिया। परन्तु हमंे यह नहीं भूलना चाहिए कि क्रान्तिकारी अपने स्वरूप और प्रकृति दोनों के कारण खुले तौर पर काम नहीं कर सकते लेकिन अपनी गतिविधियों और वीरत से उन्हांेने जनता में जोश और देश प्रेम की जो भावना जगाई वह अतुलनीय थी। उन्होंने बड़ी संख्या में लोगों में स्वतंत्रता संघर्ष में भाग लेने को उत्साहित किया। 
क्रान्तिकारियों में भी दो प्रकार की विचारधाराएँ प्रचलित थीं। पहली विचारधारा के लोग भारतीय सेना और यदि संभव हो तो अंग्रेजों की विरोधी विदेशी ताकतों की सहायता से अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र आन्दोलन करने में विश्वास रखते थे। दूसरी विचारधारा के लोग देश में हिंसात्मक कार्यक्रम जैसे कि अंग्रेज अधिकारियों, पुलिस और क्रान्तिकारी नेताओं के विरुद्ध सूचना देने वाले लोगों की हत्या करने की नीति में विश्वास रखते थे। इसमें पहली विचारधारा पंजाब और पश्चिमी उŸारप्रदेश में प्रचलित थी और तथा दूसरी बंगाल और महाराष्ट्र मेें।
  भारत में क्रान्तिकारी आंदोलन भी काफी प्राचीन है। बहावियों द्वारा सितंबर 1871 में कलकŸाा में चीफ जस्टिस. नार्मन की हत्या और फरवरी 1872 में अण्डमान में वाइसराय मेयो की हत्या भारत में क्रान्तिकारियों द्वारा की गयी, पहली घटनाएँ थीें। 1876 के बाद मेजिनी के गुप्त संगठन कारोबनारी का अनुकरण कर कलकŸाा के छात्रों ने अनेकों गुप्त संगठनों का निर्माण किया, लेकिन उन्होंने क्रान्तिकारिता का मार्ग नहीं अपनाया था। भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन ने अपना संगठित रूप उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में धारण किया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने संस्मरण में लिखा है- 
  ‘‘वह और उनके भाई ज्योतीन्द्र नाथ ठाकुर, राजनारायण बोस द्वारा 1861 में स्थापित गुप्त समिति के सदस्यों को शपथ लेनी पड़ती थी कि वे बल प्रयोग द्वारा देश के शत्रुओं को नष्ट कर देंगे। राजनारायण बोस राष्ट्रीय स्वाधीनता के लिये व्यक्तिगत आतंक को एक वैध साधन बनाने के जनक थे।’’11
इस प्रकार क्रान्तिवाद की भूमिका का नैतिक और  राजनीतिक पक्ष रहा है। नैतिक धरातल पर मृत्यु का सामना करते हुए आत्म बलिदान और साहस तथा पूरी निष्ठा ने यकीनन निर्धन, अपमानित तथा दलित भारतीयों के मन में आत्म विश्वास उत्पन्न किया था वहीं दूसरी ओर समय- समय पर बदले की भावना से निर्दोष ब्रिटिश लोगों की क्रूर हत्या से सजग भारतीयों को सकते में भी पहुँचाया। राजनैतिक धरातल पर कभी- कभी ये अंधाधुंध बिना सोचे- समझे, अतार्किक हिंसा की प्रवृŸिा के प्रभाव में मार्ग से विचलित हो जाते थे और कभी इन्होंने अपने साथ जन आंदोलन के प्रभाव तथा ताकत से ब्रिटिश साम्राज्य के आधार स्तम्भों को हिला दिया। परवर्ती अवस्था पर, यह मार्ग वैयक्तिक उ़द्यम या पुरुषार्थ के स्थान पर जनता की भागीदारी में परिणत हो गया। इसलिये इस मार्ग को सीधे- सीधे भली- बुरी श्रेणी में लाना असंभव है। हर बात, हर विचार, हर कर्म समय और विद्यमान परिस्थिति पर टिका है। 
लेकिन निःसंकोच यह कहा जा सकता है कि क्रांतिकारियों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की गति तेज करने तथा लक्ष्य प्राप्ति सुनिश्चित करने में मदद की। इनके निर्भीक एवं अनंत प्रयास तथा बलिदान का राष्ट्र की नसों में सर्वदा संचार होता रहेगा। 

      सन्दर्भ सूची

1. गोहइ, हीरेन,- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों का योगदान पृ0 1
2. उपरोक्त पृ0 1
3. उपरोक्त पृ0 10
4. उपरोक्त पृ0 12
5. उपरोक्त पृ0 14
6. उपरोक्त पृ0 15
7. उपरोक्त पृ0 18-19
8. उपरोक्त पृ0 19
9. नागोरी, एस0एल0- भारत का राष्ट्रीय आंदोलन, पृ0 2
10. उपरोक्त पृ0 3
11. गोहइ, हीरेन,- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों का योगदान पृ0 22-23


अध्याय- 2

                              गदर आंदोलन और गदर पार्टी - 

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की विफलता के बाद देश में ब्रिटिश सरकार ने सŸाा पर सीधा नियंत्रण कर एक ओर उत्पीड़न तो दूसरी ओर भारत में औपनिवेशिक व्यवस्था का निर्माण शुरु किया। क्योंेिक खुद ब्रिटेन में लोकतांत्रिक व्यवस्था थी। इसीलिये म्युनिसपैलिटी आदि संस्थाओं का निर्माण किया गया। लेकिन भारत का आर्थिक दोहन अधिक- से अधिक हो इसीलिये यहाँ के देशीय उद्योगों को नष्ट करके यहाँ से कच्चा माल इंग्लैण्ड भेजा जाना शुरु किया गया साथ ही पूरे देश में रेलवे का जाल बिछाया जाना भी शुरु हुआ। ब्रिटिश सरकार ने भारत के सामंतों को अपना सहयोगी बनाकर किसानों का भयानक उत्पीड़न शुरु किया। नतीजतन उन्नीसवीं सदी के अंत तक आते- आते देश के अनेक भागों में छिटपुट विद्रोह होने लगे । महाराष्ट्र और बंगाल तो इसके केन्द्र ही बने ही पंजाब में भी किसानों की दशा पूरी तरह खराब होने लगी । परिणामतः बीसवीें सदी के आरंभ में ही पंजाब के किसान कनाड़ा - अमेरिका की ओर मजदूरी की तलाश में देश से बाहर जाने लगे। मध्यम वर्गीय छात्र भी शिक्षा प्राप्ति हेतु इंग्लैण्ड, अमेरिका व यूरोप के देशों में जाने लगे।
         अमेरिका और कनाड़ा में भारत से काम की तलाश में सबसे पहले 1895 और 1900 के बीच कुछ लोग पहुँचे। 1897 में कुछ सिक्ख सैनिक इंग्लैण्ड में डायमण्ड जुबली मंे हिस्सा लेने आये और लौटते हुए कनाड़ा से गुजरे। उनमें से कुछ वहीं रुक गये लेकिन ज्यादातर पंजाबी मलाया, फिलिपींस, हांगकांग, शंघाई, फीजी, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड आदि देशों में सबसे पहले कनाड़ो और अमेरिका में पहुँचे। 1905 में कनाड़ा पहुँचने वाले भारतीयों की संख्या सिर्फ 45 थी,जो 1908 में बढ़कर 2023 तक पहुँच गई। एक विद्वान् के अनुसार 1907 में कनाड़ा में 6000 तक भारतीय पहुँच चुके थे। इनमें से 80 प्रतिशत पंजाबी सिक्ख किसान थे। 1909 में कनाड़ा में प्रवेश के कानून कडे कर दिये जाने पर भारतीयों का रुख अमेरिका की ओर हुआ जहाँ पर 1913 में भारतीयों की ंसंख्या एक अनुमान के अनुसार 5000 थीं। हालांकि डाॅ0 राममनोहर लोहिया अपनी पुस्तक इण्डियन इन फौरेन लैण्ड्स में इसकी संख्या 15000 बताते हैं। इन भारतीयों में 90 प्रतिशत पंजाबी सिक्ख किसान थे। कुछ मध्यमवर्गीय विद्यार्थी थे।
कनाड़ा और अमेरिका पहुँचे पढ़े- लिखे भारतीयों ने शीघ्र ही वहाँ भारतीय स्वतंत्रता की मांग उठाने वाली पत्र- पत्रिकाएँ निकालनीं शुरु कीं। तारकनाथ दास ने थ्तमम  भ्पदकनेजंद पहले कनाड़ा से पत्र निकाला तो बाद में अमेरिका से । गुरुदŸा कुमार ने कनाड़़ा में ‘यूनाइटेड इंडिया लीग’ बनाई और ‘स्वदेश सेवक’ पत्रिका भी निकाली।1
कनाड़ा और अमेरिका के अतिरिक्त इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, जापान व अन्य अनेक देशों में पहुँचे भारतीयों ने स्वतंत्रता की अलख जगाई। भारत से बाहर जाकर भारतीय स्वतंत्रता के लिये आंदोलन करने वाले भारतीयों में सबसे पहला चर्चित नाम श्यामजी कृष्ण वर्मा का है, जिन्होंने पहले इंग्लैण्ड और उसके बाद पेरिस से स्वतंत्रता का बिगुल बजाया। इंग्लैण्ड से शुरु हुआ ‘इंडियन सोश्योलोजिस्ट’ अंग्रेजों की कोपदृष्टि का शिकार होकर पेरिस पहुँचा और वहाँ से भारत और दूसरी जगहों पर पहुँचता रहा। पेरिस में श्यामजी कृष्ण वर्मा के साथ- साथ सरदार सिंह राणा और मदाम भी काजी कामा बहुत सक्रिय रहीं। 
1907 के स्टुगार्ड में हुए समाजवादी सम्मेलन में मदाम कामा ने ही पहली बार भारत का झंडा फहराया। जर्मनी में वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय जो ‘चट्टो’ के नाम से चर्चित थे, और चंपक रमण पिल्लै सक्रिय थे। इन्हीं के साथ स्वामी विवेकानन्द के छोटे भाई डाॅ0 भूपेन्द्रनाथ दŸा भी सक्रिय रहे। 1906 में इंग्लैण्ड पहुँचे विनायक सावरकर ने ‘अभिनव भारती’ व ‘फ्री इंडिया’ सोसायटी बनाई। उन्हीं से प्रेरित होकर पंजाब से पहुँचे मदनलाल ढींगरा ने 1909 में कर्जन वायली की हत्या की दी। जिसके कारण उन्हें डेढ़ महीने के भीतर ही लन्दन में फांसी दे दी गई। भारत की आजादी के लिये फांसी पर चढ़कर शहीद होनेे वाले वे शायद पहले भारतीय थे। इसके 31 साल बाद एक और पंजाबी देशभक्त ऊधम सिंह ने जलियावाला बाग के कुख्यात खलनायक ओडवायर की हत्या कर 1940 में लन्दन में ही फिर शहादत हासिल की थी। इस बीच इरान में 1915 में सूफी अंबा प्रसाद और कनाड़ा में भाई सेवा सिंह शहीद हुए। विदेशों में जाकर भारत की चेतना जगाने वाले भारतीयों में एक प्रमुख नाम लाला हरदयाल का था, जो बाद में ‘गदर पार्टी’ के मस्तिष्क और प्रथम महासचिव बने।2 लाला हरदयाल दिल्ली में पैदा हुए व यहीं से उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की। वे अत्यन्त मेधावी छात्र थे और उन्हें शोध के लिये इंग्लैण्ड जाने के लिये छात्रवृŸिा मिली थी और 1905 में वे आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रविष्ट हुए, लेकिन देशभक्ति के जज्बे से उन्होंने 1907 में छात्रवृŸिा त्याग दी और श्यामजी कृष्ण वर्मा, सरदार सिंह राणा आदि के साथ मिलकर स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद पड़े। भारत लौटे तो बहुत सी पत्र- पत्रिकाओं में लिखने लगे। हर दयाल 1908 के उŸारार्द्ध के उŸारार्द्ध में फिर इंग्लैण्ड लौट गये और फिर पेरिस चले गये। लेकिन उनका लेखन लगातार जारी रहा। अल्जीरिया होते हुए वे 1911 में अमेरिका पहुँच गये। अमेरिका प्रवास के दौरान कुछ समय हावर्ड में रहकर वे बर्कले आ गये। इस बीच वे कोलकाता के ‘माॅडर्न रिव्यू’ में नियमित रूप से लिख भी रहे थे। स्टानफोर्ड विश्वविद्यालय ने उन्हें ‘भारतीय दर्शन’ के व्याख्याता पद पर नियुक्त किया। 1912- 13 मंे वे वहीं अध्यापन करते रहे। भाई परमानंद ने उन्हें सन फ्रांसिस्को आने का निमंत्रण दिया, जहाँ पर इस बीच पंजाबी किसान बड़ी संख्या में आ चुके थे। उनमें विद्रोह की आग सुलग रही थी। इसी बीच डाॅ0 पांडुरंगी सदाशिव खानखोजे ने कैलीफोर्निया में:‘इण्डिया इण्डिपेंडेंस लीग’ बना ली थी और पं0 काशीराम इसे फण्ड दे रहे थे। कर्तार सिंह सराभा जनवरी 1912 को ही अमेरिका पहुँच चुके थे। सनफ्रांसिस्को में बाबा ज्वाला सिंह, सोहन सिंह भकना व अन्य अनेक पंजाबी संगठित होने का प्रयास कर रहे थे और उनके संगठन को वैचारिक शिक्षा देने के लिये हरदयाल को वहाँ बुलाया गया। हरदयाल के भाषणों से भारतीय छात्र अभिभूत थे। सराभा भी उनमें से एक थे। इस क्षेत्र में एस्टोरिया, संेट जोन, पोर्टलैण्ड आदि शहरों - कस्बों में पंजाबी किसान मजदूरी करते और बीस- बीस तीस- तीस के समूहों में एक साथ रहते थे।
1912 में कोर्टलैण्ड में भारतीयों की सभा की गई, जिसमें हर नाम  सिंह कोटाला, नोद सिंह, पं0 काशीराम, सोहन सिंह भकना, जी0डी0 कुमार आदि शामिल हुए। इस सभा में ‘हिन्दूस्तान एसोसिएशन आॅफ पेसिफिक काॅस्ट’ नाम की संस्था बनाने का निर्णय हुआ जिसके अध्यक्ष सोहन सिंह भकना, महासचिव जी0डी0 कुमार, कोषाध्यक्ष पं0 काशीराम चुने गये। हिन्दूस्तान नाम का साप्ताहिक शुरु करने का फैसला भी हुआ।3 इस संस्था की ओर से लाला हरदयाल को नेतृत्व के लिये निमंत्रित किया गया। लेकिन तीन महीने पश्चात् मार्च, 1913 में ही वे सेंट जोन पहुँच सके। लाला हरदयाल ने सभा के सदस्यों को वैचारिक प्रशिक्षण देने शुरु किया। 1857 के ‘गदर’ की तरह एक ओर ‘गदर’ की जरुरत पर बल देना भी उन्हीं के सुझाव पर ‘गदर’  शीर्षक से ही अखबार शुरु करने का भी फैसला हुआ। प्रस्तावित संगठन का केन्द्रिय कार्यालय सन फ्रांसिस्कों में रखते हुए कार्यालय का नाम बंगाल के क्रान्तिकारी आन्दोलन और अखबार ‘युगान्तर’ के नाम पर ‘युगान्तर आश्रम’ रखने का फैसला भी हुआ । इसके बाद मिटिंगों का सिलसिला भी शुरु हुआ। जिसमें ज्वालासिंह ठट्टिया, व शाखा सिंह ददेहर, संतोष सिंह धरदेव, पं0 जगदराम, कर्तार सिंह सराभा आदि सक्रिय रहे। 31 मार्च को ब्राइडलबिल में 7 अप्रैल को लिन्टन मिल में और फिर 2 अप्रैल 1913 को स्टोरिया में एक बड़ी मिटिंग बुलाई गई । इस मिटिंग के कर्तार सिंह सराभा भी अपने गांव सराभा से ही संबंधित रुलिया सिंह के साथ शामिल हुए। यहीं पर ‘गदर पार्टी’ की सुदृढ़ नींव डाली गयी तथा संगठन का नाम ‘हिन्दी एसोसिएशन पेसिफिक आॅफ काॅस्ट’ जो संक्षेप में ‘हिन्दी एसोसिएशन’ कहा जाने लगा और बाद में संगठन के मुख्यपत्र ‘गदर’ के नाम से ‘गदर पार्टी’ के रूप  में इतिहास में प्रसिद्ध हो गया। संगठन में सशस्त्र संगठन द्वारा भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराने और ‘गदर’ अखबार निकालने का निर्णय लिया। सर्वसम्मति से संगठन के प्रथम अध्यक्ष सोहन सिंह भाकना उपाध्यक्ष भाई केसर सिंह ठदृगढ़, महासचिव लाला हरदयाल, सहसचिव ठाकुर दासधुरी व कोषाध्यक्ष पं0 काशीराम मण्डोली चुने गये। 
एस्टोरिया की इस मीटिंग की तारीख के संदर्भ में कुछ शोधकर्ताओं ने 2 जुन को कुछ ने मई की किसी तारीख आदि का उल्लेख किया लेकिन पदाधिकारियों का नाम सभी ने यही दिया हैं वास्तव में बाद में ‘गदर अखबार’     ‘1 नवम्बर 1913’ में निकालने से ‘गदर पार्टी’ का स्थापन दिवस भी नवंबर को ही मनाया जाना शुरु हो गया।4 गदर आंदोलन की स्मृति में देशभक्त यादगार हाल जालंधर भी अब नवंबर को ‘गदर पार्टी’ का झण्डा फहराकर गदर पार्टी का स्थापना दिवस मनाता है। वैसे अधिकांश गदर पार्टी कार्यकर्ताओं ने 21 अप्रैल को स्टोरिया मिटिंग को ही गदर पार्टी के स्थापना दिवस के रूप में मान्यता दी।
              गदर पार्टी के निर्माण के बाद इसके कार्यकर्ताओं, विशेषतः ‘कर्तार सिंह सराभा’ ने बहुत तेजी से काम करना शुरु किया और ऐतिहासिक महत्व के निर्णय लिये जिनमें भारत के सशस्त्र और क्रान्ति करना भी शामिल था और इन गतिविधियों की तैयारी ‘1 नवंबर से गदर अखबार की शुरुआत’ से हुई।
गदर पार्टी द्वारा 19 फरवरी 1915 को किया जाने वाला गदर शुरु होने से पहले ही विफल हो गया। ब्रिटिश उपनिवेशवादी सरकार द्वारा बीसीयों मुकदमों द्वारा भी गदर पार्टी को खत्म करने की कोशिश की गई। लेकिन गदर पार्टी खत्म नहीं हो सकी। भारत ने भी तथा विदेशों में भी इसका अस्तित्व बना रहा। कुछ हद तक इसका विस्तार भी हुआ। गदर पार्टी ने अपने वैचारिक परिप्रेक्ष्य में भी विकास किया तथा जन तांत्रिक विचारों से आगे बढ़कर साम्यवादी विचार अपनाने तक की यात्रा तय की। गदर पार्टी पर भारत व विदेशों दोनों ने अपना संगठनात्मक ढांचा 1947 तक किसी न किसी रूप में बना रहा। लेकिन हर जगह इसके कार्यकर्ता कम्यूनिस्ट कार्यकर्ताओं के रूप में ढलकर ही अपनी गतिविधियाँ जारी रखे। पंजाब में कम्यूनिस्ट आंदोलन तथा संगठन के विकास ने गदर पार्टी कार्यकर्ताओं की महती भूमिका रही और आज तक यह भूमिका जारी है। 
गदर पार्टी की सिंगापुर इकाई को तो भारत भी पहले सिंगापुर में गदर करने का गौरव हासिल है। सिंगापुर में तैनात भारतीय फौज के सिक्ख रेजीमेंट ने भारत से भी चार दिन पहले 15 फरवरी 1915 को ही ‘गदर’ मचा दिया। जो अंग्रेज फौज ने सस्ती से दबा दिया और इस फौज गदर में शामिल इकतालिस सैनिकों को फांसी पर चढ़ा दिया गया।5 
जिस लाहौर षड्यंत्र केस ट्रिब्यूनल के पास सप्लीमेंटरी षड्यंत्र केस 102 अभियुक्तों के खिलाफ दिया गया। यह मुकदमा 29 अक्टूबर, 1915 को शुरु हुआ और इसका फैसला 30 मार्च, 1916 को सुना दिया गया। इस मुकदमे में भी पांच गदरी क्रान्तिकारियों को फांसी, 46 को उम्रकैद तथा 12 को कुछ कम कैद की सजाएं दी गईं। बाद में अंडमान (काला पानी) जेल में आठ गदरी क्रान्तिकारी भूख हड़ताल या अन्य यातनाओं से शहीद हुए, इनमें कर्तार सिंह सराभा के साथी मान सिंह सुनेत भी शामिल थे। 
            नवंबर, 1917 को रूस में लेनिन के नेतृत्व में हुई समाजवादी क्रान्ति ने दुनिया भर के क्रान्तिकारियों को प्रभावित किया। जाहिर है कि गदरी क्रान्तिकारी भी इससे प्रभावित हुए।6 
गदर पार्टी के दो प्रमुख कार्यकर्ता रतन सिंह और संतोष सिंह 1922 में मास्को पहुंचे, दोनों ने कोमिनटर्न की चैथी कांग्रेस में हिस्सा लिया। गदर पार्टी समाजवादी सिद्धान्त और सोवियत यूनियन में इनके निर्माण को समझना चाहती थी। सोवियत यूनियन में पूर्व के देशों के क्रान्तिकारियों के प्रशिक्षण के लिए पूर्व के मेहनतकशों के लिये ‘कम्यूनिस्ट विश्वविद्यालय’ मास्को में 1921 में स्थापित किया गया। इसी विश्वविद्यालय में इन देशों- भारत, चीन, कोरिया, तुर्की, ईरान आदि देशों से पहुंचे क्रान्तिकारियों को माक्र्सवाद का प्रशिक्षण दिया जाने लगा।
वास्तव में पंजाब में कम्युनिस्ट आन्दोलन की नींव डालने व सुदृढ़ करने में सबसे बड़ी भूमिका गदरी क्रान्तिकारियों की है। उनमें से भी अग्रिम भूमिका भाई रतन सिंह और भाई संतोष सिंह की है। भाई संतोष सिंह तो ‘किरती’ अखबार निकालते हुए तपेदिक की बीमारी के कारण बहुत छोटी उम्र (35 साल) में 19 मई, 1927 को ही चल बसे। भाई रतन सिंह, जो भारत में पक्के तौर पर नहीं लौट सके, हालांकि बीच- बीच में आते रहे, अपने जीवन के अंत तक विदेशों में रहकर भारत के स्वतंत्रता संग्राम और कम्युनिस्ट आन्दोलन के लिये समर्पित होकर काम करते रहे। भाई रतन सिंह के प्रयत्नों से जिन गदरी क्रान्तिकारियों ने मास्को में जाकर प्रशिक्षण लिया, उनमें पांच टोलियां सिर्फ अर्जेन्टीना से ही थीं। 1935 तक यह क्रम अनवरत् चलता रहा था। 
बाबा भगत सिंह बिलगा के अनुसार 1922 के बाद गदर पार्टी के तीन केन्द्र काम कर रहे थे- पंजाब में ‘किरती’ केन्द्र, काबुल में व सानफ्रांसिस्को में केन्द्र। पंजाब का ‘किरती’ केन्द्र कम्युनिस्ट पार्टी का बिंदु भी था। पंजाब में कम्युनिस्टों के औपचारिक गुट (सोहन सिंह जोश) ‘किरती’ गुट वास्तव में गदरी गुट ही था। इस गुट के सक्रिय कार्यकर्ताओं में बाबा गुरमुख सिंह ललतों, बाबा भगत ंिसंह बिलगा, तेजा सिंह स्वतंत्र, भाई रतन सिंह आदि प्रमुख रहे हैं। जबकि सोहन सिंह जोश, इकबाल हुंदल, हरकिशन सिंह सुरजीत आदि औपचारिक गुट में थे।
भगतसिंह और उनके साथियों के वैचारिक विकास में भी गदर पार्टी की भूमिका स्पष्ट समझी जा सकती है। पंजाब में भगत सिंह के व्यक्तित्व पर सर्वाधिक प्रभाव गदर पार्टी कर्तार सिंह सराभा का रहा, इसलिए गदरी क्रान्तिकारियों तथा भगत सिंह व उनके साथियों में 1929 के कम्युनिस्ट विरोधी ‘मेरठ षड्यंत्र केस’ से अपनी पूर्ण एकजुटता बनाई और ‘मेरठ षड्यंत्र केस’ के कम्युनिस्ट अभियुक्तों की भी गदरी .क्रान्तिकारियों व भगत सिंह से बराबर की एकजुटता रही। 
1943 में इटली में बीमारी से भाई रतन सिंह का देहांत हुआ। पंजाब मंे 1942 में ‘किरती’ (गदर पार्टी) का कम्युनिस्ट पार्टी में विलय हुआ और 1947 में भारत को आजादी मिलने पर विदेशों में स्थित गदर पार्टी की शाखाएं अपना कार्यकलाप संपूर्ण मानकर निष्क्रिय हो गई। गदर पार्टी के अधिकांश कार्यकर्ता समर्पित कम्यूनिस्ट कार्यकर्ता बन गए।लेकिन बाबा पृथ्वी ंिसह, आजाद व अन्य कई कार्यकर्ता कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल नहीं हुए। कुल मिलाकर भारत को स्वतंत्रता संग्राम व कम्युनिस्ट आंदोलन के विकास में गदर पार्टी की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। भगत सिंह के व्यक्तित्व को विकास व पंजाब का कम्युनिस्ट आंदोलन, वास्तव में गदर पार्टी व गदर आंदोलन के गुणात्मक स्तर पर आगे बढ़ा हुआ परिवर्तित, राजनीतिक विकास है। इस आंदोलन के विस्तृत और व्यवस्थित अध्ययन की जंरुरत शिद्दत से बनी हुई है। गदर आंदोलन की एक बड़ी विशेषता यह थी कि जनता में जागृति फैलाने के लिये इसमें पारंपरिक पंजाबी काव्य का खूब प्रयोग किया गया। ज्ञानी केसर सिंह द्वारा संपादित व पंजाबी विश्वविद्यालय पटियाला द्वारा पंजाबी में प्रकाशित ‘गदर लहर दी कविता’ में करीब 500 ऐसी कविताएं संकलित है जो गदर पार्टी के मुख्य पत्र ‘गदर दी गुंज’ के एक से सात अंकों में से पांच अंकों सहित अन्य अनेक पत्रिकाओं से संकलित की गई है। दुःख की बात है कि ‘गदर दी गुंज’ के अंक चार और पांच अभी तक नहीं मिल पाए। 
कर्तार सिंह सराभा हमेशा निम्न पंक्तियां गुनगुनाते थे इस पूरी कविता का संकेत अभी तक नहीं मिल पाया है- 
लिप्यान्तर- 

  ‘‘सेवा देश दी जिंदड़ीए बड़ी औखी   गल्लां करनीआं ढेर सुखल्लियां ने।   जिनां देेश सेवा विच पैर पाइया   ऊनां लक्ख मुसीबत झल्लियां ने।।


भावार्थ-  देश की सेवा करना ऐ जिंदगी बड़ा कठिन है। 
         बातें करनी बहुत आसान है।
  जिन्होंने देश सेवा (मार्ग ) पर पग रखा है।
        उन्होंने लाख मुसीबतें झेली है।
यही पंक्तियां भगत सिंह को भी बहुत प्रिय थीं। 
कर्तार सिंह सराभा रचित कविता- 
यहीं पाओगे महशर में जबां मेरी बयां मेरा,
मैं बन्दा हिन्द वालों का हूं , है हिंदोस्तां मेरा।

मैं हिन्दी, ठेठ हिन्दी, ,खून हिन्दी, जात हिन्दी हूं,
यही मजहब, यही फिरका, यही है खानदां मेरा।

मैं इस उजड़े हुए भारत के खंडहर का एक जर्रा हूं,
यही बस एक पता मेरा, यही नामों निशां मेरा।

कदम लूं मादरे भारत तेरे, मैं उठते और बैठते,
कहां किस्मत मेरी ऐसी, नसीबंा यह कहां मेरा।

तेरी खिदमत में ऐ भारत, यह सिर जाए यह जाए,
तो समझूंगा, यह मरना हयाते जादवा मेरा।7

इस प्रकार उक्त कविता ने नवयुवकों के भीतर सुप्तशक्तियों को जागृत करने में सहायक सिद्ध हुई साथ ही देश प्रेम की भावना को प्रगाढ़ बना देश की रक्षा हेतु प्राण न्योछावर करने तक की प्रेरणा दे  गई। 
           विश्व स्तर पर चले इस आंदोलन में 200 से ज्यादा लोग शहीद हुए। ‘गदर’ व अन्य घटनाओं में 315 से ज्यादा ने अण्डमान जैसी जगहों पर काले पानी की उम्रकैद भुगती और 122 ने कुछ कम लंबी कैद भुगती। सैकड़ों पंजाबियों को गांव में वर्षों तक नजरबंदी झेलनी पड़ी। उस आंदोलन में बंगाल से रास बिहारी बोस व सचिन्द्रनाथ सान्याल, महाराष्ट्र से विष्णु गणेश पिंगले व डाॅ0 खान खोजे, दक्षिण भारत से डाॅ0 चेन्चय्या व चम्पक रमन पिल्लै तथा भोपाल से बरकतुल्ला आदि ने हिस्सा लेकर उसे एक और राष्ट्रीय रूप दिया तो शंघाई, मनीला, सिंगापुर आदि अनेेक विदेशी नगरों में हुए विद्रोह ने इसे अंतर्राष्ट्रीय रूप भी दिया। 1857 की भांति ही ‘गदर’ आंदोलन भी सही मायनों में धर्म निरपेक्ष संग्राम था। जिसमें सभी धर्मों व समुदाय के लोग शामिल थे। गदर पार्टी आंदोलन की यह विशेषता भी रेखांकित करने लायक है कि विद्रोह की असफलता से गदर पार्टी समाप्त हुई, बल्कि इसने अपना अंतर्राष्ट्रीय स्तर बचाये रखा व भारत में कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होकर व विदेशों में अलग अस्तित्व बनाये रखकर पार्टी ने भारत की स्वाधीनता में महत्वपूर्ण योगदान किया। आगे चलकर 1925- 26 से पंजाब का युवक विद्रोह, जिसके लोकप्रिय नायक भगतसिंह बने, भी गदर पार्टी व कर्तार सिंह सराभा से अत्यन्त गहरे रूप में प्रभावित रहा। एक तरह से भगत सिंह का व्यक्तित्व व चिंतन गदर पार्टी की परंपरा को अपनाते हुए उसके अग्रगामी विकास के रूप में निखरा ।

                          सन्दर्भ सूची

1. लाल, चमन - गदर पार्टी नायक कर्तार सिंह सराभा, 2014, पृ0 4
2. उपरोक्त - पृ0 7
3. उपरोक्त - पृ0 40-41
4. उपरोक्त - पृ0 4
5. ग्रोवर, बी0 एल0 यशपाल- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम तथा संवैधानिक विकास पृ0 215- 216
6. लाल, चमन- गदर पार्टी नायक कर्तार सिंह सराभा, 2014 पृ0 78
7. उपरोक्त- पृ0 79 

अध्याय- 3

                              बंगाल में क्रान्तिकारी आंदोलन का उदय एवं प्रसार - 

बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में क्रान्तिकारी आन्दोलन का प्रमुख केन्द्र बंगाल था। बंगाल के विभाजन की घोषणा से बंगाल में क्रान्तिकारियों की गतिविधियां बढ़ने लगीं। बंगाल में क्रान्तिकारी आन्दोलन के प्रसिद्ध नेता अरविन्द बाबू के छोटे भाई बारीन्द्र कुमार घोष और स्वामी विवेकानन्द के छोटे भाई भूपेन्द्रनाथ दत्त थे। इन्होंने ‘युगान्तर’ तथा ‘सन्ध्या’ नामक समाचार पत्रों के माध्यम से सरकार की कटु आलोचना करते हुए नवयुवकों को क्रान्तिकारी कार्यों के लिये प्रेरित करना प्रारम्भ कर दिया।1 
बंगाल में अंग्रेजों का आधिपत्य शेष भारत की अपेक्षा आधी शताब्दी से भी पहले हो गया था। वे वहां अपेक्षाकृत बहुत अधिक संख्या में थे। ‘भूपेन्द्रनाथ दत्त’ ने लिखा है कि ‘‘इस देश में अंग्रेजों की संख्या 1.5 लाख से अधिक नहीं है। प्रत्येक जिले में अंग्रेज पदाधिकारियों की संख्या कितनी है? यदि आप अपने संकल्प में दृढ़ हैं तो एक ही दिन में ब्रिटिश शासन का अन्त कर सकते हैं। अपने प्राण दे दीजिये लेकिन पहले प्राण ले लीजिए।’’
अंग्रेजों ने नील की खेती, व्यापार, खानों तथा उद्योग धन्धों में और चाय के बागान में उन्होंने कल्पनातीत धन कमाया था। उनके संसर्ग से बहुत बड़ी संख्या मंे एंग्लो इण्डियन जाति उत्पन्न हो गई थी। जब प्लासी और बक्सर युद्ध के पश्चात् अंग्रेजों का शासन भी बंगाल पर स्थापित हो गया  तो उनका अहंकार चरम सीमा पार कर गया। वे भारतीयों को दास और हेय समझते थे। उनकी दृष्टि में भारतीय अपमान तथा घृणा के पात्र थे। गोरे सैनिक अंग्रेज (योरोपियन) और अधगोरे एंेग्लों इण्डियन रेलों में, ट्रामों में, पार्कों में तथा सड़कों में अथवा अन्य सार्वजनिक स्थानों पर प्राथमिकता पाना अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझते थे। यदि कोई भारतीय अपने अधिकार का आग्रह करता तो उसको पीटते और अपमानित करते। पुलिस भारतीयों की कोई सुनवाई नहीं करती थी। यदि भारतीयों को गहरी चोट आती तो भी उसकी रिपोर्ट नहीं लिखती। अदालतों में अंग्रेजों या ऐंग्लों इण्डियन के विरुद्ध कोई न्याय नहीं मिल सकता था। शासन और राज्य अधिकारी उन दम्भी और उद्दण्ड गोरों तथा अधगोरों के विरुद्ध कोई कार्य करने के लिये तैयार नहीं था। अतएव बंगाल में यह भावना बल पकड़ गई कि भारतीयों को शारीरिक दृष्टि से बलिष्ठ और शक्तिशाली होना चाहिए। जिससे की गोरों तथा अधगोरे ऐंग्लो इण्डियनों के अत्याचार का वे प्रतिकार कर सकें। इसी उद्देश्य से बहुत बड़ी संख्या में शारीरिक विकास के लिये सन् 1897 में समितियां स्थापित की गईं। यद्यपि आरंभ में उन समितियों का उद्देश्य क्रान्तिकारी नहीं था, परन्तु अंग्रेजों के कारण तीव्र भावना होने के कारण उनमें क्रान्ति के बीज छिपे थे। बंगाल में क्रान्तिकारी आंदोलन का सूत्रपात भद्रलोक समाज से हुआ। श्री पी. मित्रा ने एक गुप्त क्रान्तिकारी सभा का जिसे ‘अनुशीलन समिति’ कहते थे, सन् 1902 में गठन किया। बंगाल के विभाजन के पश्चात् विदेशी माल का बहिष्कार तथा स्वदेशी आन्दोलन जोर पकड़ गया जिसके फलस्वरूप बंगाल में वह राजनैतिक जागृति आई जो पहले कभी देखने को नहीं मिली थी।2 शीघ्र ही इस आंदोलन का उद्देश्य विभाजन को रद्द करवाना ही नहीं अपितु स्वराज्य की प्राप्ति बन गया। जिन्होंने प्रारम्भिक अवस्था में अनुशीलन समिति को तेजवान् क्रान्तिकारी संस्था बनाने का कार्य किया उनमें पी. मित्र, सतीश बाबू, प्रियव्रत सरकार, प्रो. नलिनी मित्र, सुरेन सेन (बारी लाल), पुलिन मुखर्जी, सुरेन हलदार, मन्मथ मित्र और शशिभूषण  राय चैधरी मुख्य थे। 
सन् 1905 में एक बरिन्द्र कुमार घोष  ने ‘भवानी मन्दिर’ नाम की पुस्तिका जिसमें क्रान्तिकारी कार्यों को संगठित करने के लिये केन्द्र बनाने के लिये विस्तृत जानकारी दी गई थी, लिखी। इसके पश्चात् वर्तमान रणनीति के नियम (त्नसमे व िडवकमतद ॅंतंितम) प्रकाशित की गई। ‘युगान्तर’ और ‘सन्ध्या’ नाम की पत्रिकाओं में भी अंगे्रज विरोधी विचार प्रकाशित किए जाने लगे। इसी प्रकार एक अन्य पत्रिका ‘मुक्ति कौन पाथे’ (मुक्ति किस मार्ग से) में भारतीय सैनिकों से भारतीय क्रान्तिकारियों को अधिकार देने का आग्रह किया गया। बंगाल के युवकों की शक्ति की द्योतक भवानी की पूजा करने को कहा गया ताकि वे मानसिक, शारीरिक, आत्मिक तथा नैतिक बल प्राप्त कर सकें। कर्म करने पर भी बल दिया गया।3 
अनुशीलन जैसी समितियों के परिणामस्वरूप 1907- 14 के बीच बंगाल में कई क्रान्तिकारी घटनाएँ घटीं। 16 दिसम्बर 1907 को मिदनापुर के निकट उप- गवर्नर की रेलगाड़ी को बम से उड़ा देने का प्रयास किया। जिला मजिस्ट्रेट घायल तो हो गया, किन्तु मरा नहीं। इसके पश्चात् क्रान्तिकारियों ने 30 अप्रैल 1908 आधुनिक बिहार के मुजफ्फर जिले के न्यायाधीश श्री किंग्जफोर्ड (ज्ञपदहेवितक) की हत्या करने का प्रयास किया गया। उन्होंने मुख्य प्रेजिडेन्सी दण्डनायक- (ब्ीपम िच्तमेपकमदबल डंहपेजतंजम) के रूप में युवकों को छोटे- छोटे अपराधों के लिये बड़ी- बड़ी सजाएं दी थीं। प्रफुल्ल चाकी तथा खुदीराम बोस को इन पर बम मारने का भार दिया गया। गलती से बम केनेडी (ज्ञमददमकल) की गाड़ी पर गिरा दिया गया। जिससे दो महिलाओं की मृत्यु हो गयी। प्रफुल्ल चाकी तथा बोस पकड़े गए। चाकी ने आत्महत्या कर ली परन्तु बोस पर अभियोग चला और उन्हें फांसी दी गई। 
सरकार ने अवैध हथियारों की तलाश के संबंध में मानिकटोला उद्यान में तथा कलकŸाा में तलाशियां लीं तथा 34 व्यक्तियों को बन्दी बनाया गया, जिसमें दो घोष बन्धु, अरविन्द तथा बरिन्द्र सम्मिलित थे। इन पर अलीपुर षड्यन्त्र काण्ड का मुकदमा बना। मुकदमें के दिनों में सरकारी गवाह नरेन्द्र गोसाईं की जेल में हत्या कर दी गई। फरवरी 1909 में कलकत्ता में सरकारी वकील की हत्या कर दी गई तथा 24 फरवरी, 1910 को उपपुलिस अधीक्षक (क्मचनजल ैनचमतपदजमदकमदज व िच्वसपबम) की कलकत्ता उच्च न्यायालय से बाहर आते समय हत्या कर दी गई। 
इन घटनाओं से उत्तेजना फैल गई। तिलक ने इन बंगाली आतंकवादियों की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। 22 जून, 1908 के ‘केसरी’ में उन्होंने इस प्रकार टिप्पणी की: 
‘‘1897 में हुई हत्याओं तथा बंगाल के बम काण्डों में बहुत भेद है......। उनका (चापेकर बन्धुओं का) उद्देश्य उस उत्पीड़न का विरोध करना था जो प्लेग के दिनों में किया गया। अर्थात् एक कार्य- विशेष का विरोध करना था, परन्तु बंगाली बम दल का उद्देश्य विस्तृत तथा बहुत अलग है, जो कि बंगाल विभाजन के कारण हमारे सम्मुख आया है।’’
बंगाल के लिये शहीद (खुदीराम बोस) क्रान्तिकारी के सम्बन्ध में ‘सर वैलेंटाइन शिरोल’ ने लिखा है कि - ‘‘इस प्रकार खुदीराम बोस बंगाल के क्रान्तिकारियों के लिये राष्ट्रीय वीर तथा शहीद बन गया। विद्यार्थियों तथा अन्य व्यक्तियों ने उसके लिये शोक के वस्त्र ग्रहण किये। दो- तीन दिन के लिये स्कूल बन्द कर दिये गये और उसकी स्मृति में श्रद्धांजलियां अर्पित की गयीं। बहुत से लोगों ने ऐसी धोतियां पहनीं जिनके किनारे खुदीराम बोस का नाम अंकित था तथा उसके चित्र भी बांटे गये।’’
अर्थात् बंगाल की क्रान्ति में खुदीराम बोस जैसे प्रखर क्रान्तिकारी का महत्वपूर्ण योगदान था। 
तत्पश्चात् एक और घटना 1910 ई0 में घटी जो ‘अलीपुर केस’ के नाम से प्रसिद्ध है। सरकार को कलकŸाा में क्रान्तिकारी षड्यन्त्र का बोध हुआ जिसमें कुछ बम, डायनामाइट तथा कार्तूस बरामद हुए। इस घटना के संबंध में 39 क्रान्तिकारी पकड़े गये। अरविन्द घोष भी उनमें से एक थे। 12 फरवरी, 1910 ई0 को केस के निर्णय में अरविंद घोष तथा उनके कुछ साथी आरोप सिद्ध न होने के कारण छोड़ दिए गए। परन्तु शेष को कठोर दण्ड दिया गया। श्री अरविन्द ने पांच व्यक्तियों की एक समिति इस उद्देश्य से बनाई कि वह बंगाल में जो कई गुप्त क्रान्तिकारी समितियां अलग- अलग काम कर रही थी, उनको एक सूत्र में गठित कर दे। उस समिति के निम्नलिखित सदस्य थे- पी0 मित्र, श्री भगिनी निवेदिता, जतीन बैनर्जी, श्री सिया दास तथा सुरेश नाथ टैगोर। 
सन् 1903 में श्री अरविंद ने अपने छोटे भाई बारीन्द्र घोष को भी क्रान्तिकारी कार्य के लिये दीक्षा देकर कलकŸाा भेज दिया। श्री अरविन्द ने बारीन्द्र को एक हाथ में गीता और दूसरे हाथ में तलवार देकर शपथ दिलाकर क्रान्तिकारी कार्य के लिये दीक्षित किया। शपथ की लाईनें कुछ इस प्रकार है- 
      ‘‘जब तक मेरे शरीर में प्राण है और जब तक भारत माता दासता की श्रंखलाओं से मुक्त नहीं होती, मैं क्रान्ति का कार्य करता रहूँगा। यदि मैं कभी भी समिति का एक शब्द अथवा एक भी घटना दूसरों पर प्रकट कर अथवा किसी भी प्रकार उसको हानि पहुँचाऊँगा तो मैं मृत्युदण्ड का भागी होऊँगा।’’4
बारीन्द्र को क्रान्तिकारी कार्य करने के लिये उन्होंने कलकŸाा भेज दिया। बारीन्द्र भी जतीन्द्र बनर्जी के साथ कार्य करने लगे। बंग- भंग के कारण बंगाल का वायुमण्डल उस समय राष्ट्रीय भावनाओं तथा क्रान्तिकारी विचारधाराओं से भरा हुआ था। अनुशीलन समिति के क्रान्तिकारी उत्साही युवकों ने देखा कि श्री पी0 मित्र के नेतृत्व में अनुशीलन समिति उग्र क्रान्तिकारी संगठन नहीं बन सकता तो मानिकतलला बाग में एक गुप्त संगठन बम बनाने के लिये खड़ा किया। श्री अरविंद उसके प्रेरणा स्त्रोत थे। जतीन्द्र बनर्जी स्वामी विवेकानंद के छोटे भाई भूपेन्द्र नाथ दत्त, बारीन्द्र, देवदत्त बसु, अविनाश भट्टाचार्य, उल्लास्कर दत्त आदि उस गुप्त संगठन के प्रमुख सदस्य थे। इस गुप्त दल के दो पक्ष थे। एक पूर्ण रूप से गुप्त था जो अस़्त्र- शस्त्र एकत्रित करने और बम बनाने का कार्य करता था। और दूसरा भाग साप्ताहिक पत्र युगान्तर निकालता था। इसी कारण इस दल का नाम जुगान्तर अथवा युगान्तर पड़ गया। परिणामस्वरूप प्रत्येक जिले में क्रान्तिकारी संगठन खड़े हो गये। बारीसाल, मैमन सिंह, फरीदपुर, मिदनापुर, खुलना, रंगपुर, पाबना तथा जसोर के जिला संगठन अधिकारी तेजवान् थे।
इसी समय जुगान्तर दल ने ‘‘जुगान्तर’’ साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन आरम्भ किया जिसको आरम्भ करने में भूपेन्द्र नाथ दत्त, बारीन्द्र घोष, उड़ेन बनर्जी, देवव्रत बोस, अविनाश भट्टाचार्य तथा अविनाश चक्रवर्ती का प्रमुख हाथ था। जुगान्तर के अतिरिक्त क्रान्तिकारियों ने तीन पत्र और निकाले थे। 1904 में ब्रह्मबांधव उपाध्याय में बंगाल दैनिक ‘सन्ध्या’ निकाला। मनोरंजन गुहा ठाकुरता के संपादकत्व में बंगाली दैनिक ‘नवशक्ति’ निकाला। श्री अरविंद की प्रेरणा तथा निर्देशन में अंग्रेजी दैनिक ‘वंदे मातरम्’ निकाला। इन चारों समाचार पत्रों का संपादक मण्डल एक ही था। जिसके अध्यक्ष श्री अरविंद थे। इन पत्रों के द्वारा क्रान्तिकारियों के भीतर क्रान्तिकारी विचारों की जैसे ज्वाला भड़क उठी तथा क्रान्तिकारी विचारधाराओं का खूब प्रचार हुआ । पत्रों से प्रेरणा ले अनेक क्रान्तिकारियों ने क्रान्तिदल में अपना नाम दर्ज करा क्रान्ति हेतु अपना सर्वस्व न्योच्छावर किया।
         ‘युगान्तर सन्ध्या’ ‘नवशक्ति’ तथा ‘वंदे मातरम्’ उग्र क्रान्तिकारी विचारों का प्रभावशाली शब्दों में प्रचार करते थे। अस्तु उन पर सरकार का प्रभाव होता अवश्यम्भावी था।5 
जब सरकार ने जुगान्तर पर मुकदमा चलाया। उसके सम्पादक भूपेन्द्र नाथ दत्त ने न्यायालय में कहा, ‘‘जिन लेखों को आपत्ति जनक कहा गया मैं ही उनका लेखक हूँ। मैं उसके लिये पूर्ण रूप से उत्तरदायी हूँ। अपने देश के प्रति जो अपना कर्तव्य है उसको पूरा करने की दृष्टि से ही मैंने वो लेख लिखे हैं।’’ परिणाम में भूपेन्द्र नाथ दत्त को एक वर्ष का कठोर कारावास हुआ। तो कलकत्ता मंे अभूतपूर्व प्रदर्शन हुआ। 

सरकार ने वंदेमातरम् श्री अरविंद के लेख पर मुकदमा चलाया और वन्दे मातरम् पूर्व सम्पादक विपिन चन्द्र पाल को न्यायालय में गवाही न देने पर कारावास का दण्ड  दिया गया। उसी समय ‘सन्ध्या’ पर भी अभियोग चलाया गया। उसके सम्पादक ब्रह्म बांधव उपाध्याय ने कहा- 
        ‘‘मैं इस विदेशी सरकार को स्वीकार नहीं करता। मैं विदेशी सरकार के प्रति उत्तरदायी नहीं हूँ। यह फिरंगी अदालत मुझे सजा नहीं दे सकती और न मेरे शरीर को स्पर्श कर सकेगी। उससे पूर्व कि वह मेरे शरीर को स्पर्श करे, मैं अपने शरीर का फेंक दूंगा।’’6 
         उनकी भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। अभियोग समाप्त होने से पूर्व ही उनकी मृत्यु हो गई। ब्रह्म बांधव की मृत्यु के उपरांत जतीन्द्र बनर्जी ने ‘सन्ध्या’ का सम्पादकत्व अपने हाथ में ले लिया और पहला अग्र लेख लिखा- 
‘‘मैं मरा नहीं हूँ, मैं लौट आया हूँ।’’
जुगान्तर के एक के बाद कई सम्पादक जेल गये। पर ‘जुगान्तर’ और ‘सन्ध्या’ का प्रकाशन बंद नहीं हुआ। 
जब विपिनचन्द्र पाल को दण्ड दिया गया तो न्यायालय में सरकार विरोधी प्रदर्शन हुआ। न्यायालय ‘वंदे मातरम्’ के तीव्र घोष से गूंज उठा। किंस फोर्ड प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट इस प्रदर्शन से क्रोध से उन्मत्त हो उठा। उसने सारजेट ह्वे को आज्ञा दी कि वह सुशील सेन को गिरफ्तार कर ले, जो बड़े उत्साह से वंदे मातरम् का घोष कर रहा था।7 ह्वे उस बालक को पकड़ने के लिये गया तो सुशील सेन ने उसके मुख पर थप्पड़ मारा। किंग्स फोर्ड ने सुशील सेन को पन्द्रह कोड़े लगाये। प्रत्येक कोड़े के साथ सुशील वंदे मातरम् का घोष करता था। कम आयु के बालक सुशील सेन को ‘वंदे मातरम्’ का घोष करने पर इस अमानवीय और क्रूरतापूर्ण दण्ड दिये जाने से और सुशील सेन के अद्भुत साहस और शौर्य की भावपूर्ण कहानी पढ़कर देश में क्रोध की भावना लहर की तरह फैल गई। इस काण्ड के सन्दर्भ में ‘काव्य विशारद’ ने अत्यन्त भावना प्रधान कविता बनाई जिसका भावार्थ था- 
‘‘क्या तुम कोड़े मारकर मुझे अपनी माता को भूल जाने पर विवश करना चाहते हो। क्या मैं मां का ऐसा नीच और अयोग्य कुपुत्र हूँ।’’8  जुगांतर दल ने सुशील सेन के साथ उस क्रूर, और अमानवीय व्यवहार का बदला लेने का निश्चय किया और निश्चय किया कि किंग्स फोर्ड को मार दिया जाय। 
क्रान्तिकारियों को अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे अत्याचार व शोषण सहन नहीं हो रहे थे, अतः क्रान्तिकारियों ने निश्चय किया कि अंग्रेज गवर्नरों को मार दिया जाय। दोनों बंगालों के लेफ्टिनेंट गवर्नर को भी क्रान्तिकारी मार देना चाहते थे। ‘‘सर ऐन्डरू फ्रेजर बंगाल, बिहार और उड़ीसा के तथा ‘सर बैमफील्ड फुलर’ पूर्वी बंगाल तथा आसाम के लेफ्टिनेंट गवर्नर थे। दोनों भी क्रान्तिकारियों की आंख में चढ़ गए थे क्योंकि उन दोनों अपने- अपने प्रांतों में घोर अत्याचार और दमन किया था। अतएव क्रान्तिकारी उनका पीछा कर रहे थे। क्रान्तिकारी दल ने खुदीराम बोस को फ्रेजर तथा प्रफुल्ल चाकसी को फुलर को मारने के लिये नियुक्त किया था। 
क्रान्तिकारियों की बढ़ती हुई कार्यवाहियों से सरकार चिंतित हो उठी। मुजफ्फरपुर बम काण्ड के उपरान्त तो सरकार जैसे बौखला उठी। 2 मई 1908 को पुलिस ने मानिकतलला के 12 नवंबर को मकान पर छापा मारा। श्री अरविंद 28 अप्रैल तक स्काट्स लेन के 23 नवंबर के मकान में रहते थे, उसके उपरांत वे ग्रे- स्ट्रीट के 48 नम्बर मकान में चले गए। बाग में कुछ राइफलें, रिवाल्वर, डाइनेमाइट बम के लोहे के खोल बनाने के औजार और बम किस प्रकार तैयार किया जावे उसका फारमूला नासिक में गणेश सावरकर के मकान से मिला था। बारीन्द्र घोष ने समस्त उŸारदायित्व अपने ऊपर ले लिया।
सरकार के इन भयंकर दमन के कारण कुछ समय के लिए आंदोलन की गतिशीलता शिथिल हो गई परन्तु शीघ्र ही आंदोलन जिलों में और कलकŸाा में भी पुनः तेजवान हो उठा। कलकŸाा की अनुशीलन समिति क्रान्तिकारी संगठन के रूप में प्रायः समाप्त हो गई। ढाका अनुशीलन समिति एक स्वतंत्र और सशक्त क्रान्तिकारी संगठन के रूप में उभरी। जिलों में विभिन्न क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं ने अपने- अपने क्रान्तिकारी दल बना लिये थे। बारीसाल में स्वामी प्रजनानन्द सरस्वती, मैमन सिंह में, हेमेन्द्र किशोर आचार्य, जसोर में बिजोय राय, उŸार बंगाल में जतीन राय और अविनाश राय ने गुप्त क्रान्तिकारी संगठन खड़े कर लिए थे। 
क्रान्तिकारी दल की तीन मुख्य आवश्यकताएँ थीं उन्हें देशभक्त- चरित्रवान युवकों, धन और अस्त्र- शस्त्रों की आवश्यकता रही थी। बंग- भंग के पश्चात् देश के नवजवान युवक क्रांति हेतु क्रान्तिकारी दल में अपने को निःसंकोच कटिबद्ध करने लगे। 
क्रान्तिकारियों ने अपनी आवश्यकता की पूर्ति में धन के लिए देश के धनी घरों में डकैती डालने का निर्णय किया जो कि देश की स्वतंत्रता हेतु डकैती करना कोई नैतिक अपराध नहीं माना जाएगा, जिसका समर्थन क्रान्तिदल के सभी प्रमुख नेताओं ने किया। रंगपुट के प्रतिनिधि ने कहा कि ‘‘जो भी धन लूटकर लाया जाए और स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत जिनसे जितना धन प्राप्त हुआ हो उन्हें वापस लौटा दिया जावे।’’9 श्री अरविंद ने इस सुझाव का समर्थन किया और वह स्वीकार कर लिया गया। 
क्रान्तिकारियों का यह विचार था कि देश की स्वाधीनता क्रान्ति के मार्ग से ही आएगी। क्रान्ति जनता तथा विदेशी सरकार और उनके साथियों के बीच सशस्त्र संघर्ष के रूप में ही प्रकट नहीं होगी, बल्कि इससे नई सामाजिक व्यवस्था का भी उदय होगा। क्रान्ति से पूंजीवादी वर्ग भेद तथा समाज के छोटे विशेष वर्ग के विशेषाधिकारों का अंत होगा। इससे सर्वहारा वर्ग का शासन आएगा। जिससे विदेशी तथा भारतीयों की सत्ता के हाथों होने वाले सभी प्रकार के शोषण का उन्मूलन होगा। 
इस प्रकार बंगाल की क्रान्ति में ‘युगान्तर’, ‘संन्ध्या’ तथा ‘वंदे मातरम्’ व ‘केसरी’ जैसी विभिन्न क्रान्तिकारी पत्रिकाओं के सम्पादकों ने अपने साहित्य में लेखों के माध्यम से जनता के भीतर मातृभूमि के प्रति देशभक्ति की भावना को उग्र किया। साथ ही क्रान्ति का उचित व सरल मार्ग अपनाकर क्रान्ति हेतु लोगों को प्रेरित किया। क्रान्तिकारियों ने बंगाल में आंदोलन छेड़ने हेतु विभिन्न गतिविधियां संचालित की।
इस प्रकार बंगाल की क्रान्ति में महत्वपूर्ण योगदान रहा। 

      सन्दर्भ सूची

1. नागौरी, एस.एल.- भारत का मुक्ति संग्राम, पृ.0 90- 91
2. सहाय, शंकर सक्सेना- क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास पृ0 126
3. उपरोक्त- पृ0 127
4. उपरोक्त- पृ0 130
5. ग्रोवर, बी.एल. यशपाल- आधुनिक भारत का इतिहास, पृ0 311- 312
6. डाॅ0 वर्मा, दीनानाथ- आधुनिक भारत का इतिहास, पृ0 315- 316
7. डाॅ0 पाण्डेय, धनपति- आधुनिक भारत का इतिहास पृ0 252
8. उपरोक्त- पृ0 277
9. सहाय, शंकर सक्सेना- क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास- पृ0 151.

अध्याय- 4

     महाराष्ट्र में क्रान्तिकारी आन्दोलन

     क्रान्तिकारी आन्दोलन बंगाल से भी पहले महाराष्ट्र में प्रारंभ हो गया था। 1899 ई0 में पूना में चापेकर बन्धुओं ने प्लेग कमिश्नर मि0 रैण्ड तथा आयस्र्ट की हत्या कर क्रान्ति का बिगुल बजा दिया था। महाराष्ट्र में क्रान्तिकारी आन्दोलन के अन्य नेता श्यामजी कृष्ण वर्मा और सावरक.र बन्धु(वीर विनायक दामोदर सावरकर तथा गणेश सावरकर) थे। वीर सावरकर ने 1904 ई0 में ‘अभिनव  भारत समिति’ नामक क्रान्तिकारी संस्था की स्थापना नासिक में की और शीघ्र ही उसके प्रयत्नों के परिणामस्वरूप सारे महाराष्ट्र में गुप्त समितियों का जाल बिछ गया।1 इन समितियों ने नासिक एवं पूना आदि में बम बनाने की फैक्ट्रियाँ स्थापित कीं। इन संस्थाओं ने महाराष्ट्र की जनता को देश के लिए पर मिटने की प्रेरणा दी। 
महाराष्ट्र ने सबसे अन्त में इस्ट इण्डिया कम्पनी की अधीनता स्वीकार की थी। मुगल काल में भी छत्रपति शिवाजी के नेतृत्व में महाराष्ट्र ने स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया था। अस्तु यह स्वाभाविक था कि महाराष्ट्र को अंग्रेजी शासन की दासता अखरती और वहाँ देश को स्वतंत्र कराने की भावना बलवती होती। यद्यपि उग्र राष्ट्रीयता की भावना को महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक ने फैलाया परन्तु क्रान्तिकारी संगठन खड़ा करने का श्रेय वहां उदयपुर के ठाकुर साहब (रामसिंह) को था। 
1905 के पूर्व भारत में क्रान्तिकारी आंदोलन के प्रबल समर्थक अरबिंदु बड़ौदा राज्य की सेवा में थे। बड़ौदा में रहकर वे बंगाल के क्रान्तिकारी आंदोलन का निर्देशन करते थे पर वे महाराष्ट्र के क्रान्तिकारी आंदोलन से भी सम्बद्ध थे। ‘इन्दु प्रकाश’ में अरबिन्दु के जो लेख प्रकाशित हुए उनके कारण लोकमान्य तिलक उनकी ओर आकर्षित हुए और शीघ्र ही उनके संबंध घनिष्ठ हो गए। उस समय पूना में एक क्रान्तिकारी दल था उसको संगठित करने वाले उदयपुर के ठाकुर साहब रामसिंह थे। वे उदयपुर के राजवंश के नहीं थे। किस ठिकाने के थे यह अज्ञात है। वे पूना में बस गये थे और उन्होंने 1896 में वहां एक क्रांतिकारी दल खड़ा कर लिया था। उनका लक्ष्य सेनाओं को विद्रोह करने के लिये तैयार कर लिया था। वे राजस्थान और मध्यभारत की सेनाओं में भी सक्रिय थे। अरबिंदु का उनसे घनिष्ठ संबंध था क्योंकि वे उदयपुर के ठाकुर साहब द्वारा संगठित, क्रांतिकारी समिति की कार्यकारिणी के सदस्य थे। ठाकुर साहब द्वारा संगठित क्रांतिकारी समिति की कार्यकारिणी के सदस्य थे। ठाकुर साहब उसके अध्यक्ष थे। अरबिन्दु के माध्यम से महाराष्ट्र और बंगाल में क्रांतिकारियों का निकट सम्बन्ध स्थापित हो गया था। 
जहां सेना में क्रान्तिकारी भावना उत्पन्न करने के लिए उदयपुर के ठाकुर साहब ने क्रांतिकारी संगठन खड़ा किया वहां तरुणों में क्रांतिकारी भावना उत्पन्न करने के लिये कोल्हापुर में हनुमन्त राव कुलकर्णी ने 1893 में शिवाजी कलक और चापेकर बन्धुओं ने 1894 में हिन्दुओं संरक्षिणी सभा तथा व्यायाम मण्डल की स्थापना की। शिवाजी क्लब की स्थापना मुख्यतः अंग्रेज अधिकारियों की हत्या करने के लिये हुई थी। 1899 तक सरकार की दृष्टि इस क्रांतिकारी संस्था पर नहीं पड़ी। 1899 में उस संस्था के कार्यकर्ताओं ने निजाम राज्य के बाद जिले में कई डकैतियां डालीं। उस समय क्लब को गैर कानूनी संस्था घोषित कर दिया गया। परन्तु संस्था के कार्यकर्ता भूमिगत होकर क्रान्तिकारी कार्य करने लगे। 
19 वीं शताब्दी के अंत में ब्रिटिश साम्राज्यवादी कूटनीतिज्ञों ने भारत मंे सांप्रदायिक दंगे कराने की नीति अपना ली थी। हिन्दू- मुसलमानों में आपसी तनाव करवाना उनकी प्रकट नीति बन गई थी। इस सांप्रदायिक भेदभाव की नीति को जन्म देने का श्रेय तात्कालिन वायसराय लार्ड डफरिन को था और सर सय्यद अहमद और अलीगढ़ के मुस्लिम काॅलेज के अंग्रेज पिंसिपल बेक उनके मुख्य प्रचारक थे।2 
इस नीति के परिणामस्वरूप 1893 में बम्बई में मुहर्रम के समय भयंकर हिन्दू- मुस्लिम दंगा हुआ। हिन्दुओं में इसकी भयंकर प्रतिक्रिया हुई। पेशवाओं के राज्य सम्पूर्ण महाराष्ट्र में गणपति उत्सव होता था। लोकमान्य तिलक ने उस उत्सव को पुनः प्रचलित किया। यह उत्सव दस दिन तक चलता था और उसमें लाठी, तलवार, गडका, बल्लम चलाने तथा व्यायाम के प्रदर्शन होते थे। यही नहीं लोकमान्य तिलक ने भारतीयों में स्वराज्य प्राप्त करने की भावना को जागृत करने के लिये महाराज शिवाजी के सिंहासनारूढ़ होने के दिन को जून 1905 में शिवाजी उत्सव के रूप में मनाना आरंभ किया। वास्तव में लोकमान्य तिलक इन ऐतिहासिक दिनों को राष्ट्रीय उत्सव का रूप देकर देश में स्वतंत्रता प्राप्त करने की भावना उत्पन्न करना चाहते थे।
लोकमान्य तिलक जिस राष्ट्रीय भावना को सर्वसाधारण में उत्पन्न करना चाहते थे। चापेकर बन्धु उसको अपनी क्रांतिकारी गुप्त समितियों द्वारा व्यावहारिक रूप दे रहे थे। चापेकर बन्धुआंे के अन्तर में कौन सी भावना काम कर रही थी उसकी थोड़ी सी झलक हमें उन श्लोकों में मिलती है जिनकी उन्होंने गणपति उत्सव तथा शिवाजी उत्सव पर गाया था। 
‘‘केवल बैठे रहकर महाराज छत्रपति की वीरगाथा को दोहराते रहने से हमें स्वाधीनता नहीं मिल सकती। यदि हम स्वतंत्र होना चाहते हैं तो हमें शिवाजी और बाजीराव की भांति कमर कसकर भयानक कृत्य करने के लिये तैयार होना होगा। मित्रों! यदि स्वाधीनता चाहते हो तो तुम्हें अपने हाथ में ढाल और तलवार उठानी होगी। हमें सहस्रों शत्रुओं के सिरों को काटना होगा। सुनो, हम देश की स्वतंत्रता के लिये लड़े जाने वाले राष्ट्रीय युद्ध के रणक्षेत्र में अपना बलिदान देंगे और उन लोगों के रक्त से पृथ्वी को रंग देंगे जो हमारे धर्म को नष्ट करने अथवा आघात पहुंचाने का प्रयत्न कर रहे हैं। हम शत्रुओं को मारकर ही मरेंगे और तुम लोग औरतों की भांति घर बैठकर हमारी कहानी सुनोगे।’’3
उक्त भावार्थ के माध्यम से छत्रपति शिवाजी के व्यक्तित्व का चित्रण किया गया है । साथ ही क्रांतिकारियों की सुषुप्त शक्तियों के जागरण हेतु उनके आत्मविश्वास को प्रबल करने का प्रयास किया गया है, ताकि आजादी के लिये क्रांतिकारी आगे आएं साथ ही तन, मन और धन सम्पूर्ण मनःस्थिति के साथ स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु अपना सर्वस्व अर्पण कर दें।
‘‘हाय! रास्ता में रहकर भी तुम्हें लज्जा नहीं आती। इससे तो कहीं यह उत्तम होगा कि तुम आत्महत्या कर लो। हत्यारे कसाईयों की भांति गौवध करते हैं। गो माता को इस दयनीय दशा से छुड़ा लो। मर जाओ पर पहले अंग्रेजों को तो मारो। चुप मत बैठो। व्यर्थ में पृथ्वी का भार मत बढ़ाओ। हमारे देश का नाम तो हिन्दुस्तान है फिर अंग्रेज यहां राज्य क्यों करते हैं?’’4
गणपति उत्सव तथा शिवाजी उत्सव का मुख्य उद्देश्य देश में देश प्रेम तथा राष्ट्रीय भावना का उदय करना था। महाराष्ट्र में ही दोनों उत्सवों के द्वारा राष्ट्रीय विचारधारा को बहुत बल मिला। दिसंबर, 1996 में बम्बई प्रेसिडेंसी में भयंकर प्लेग का प्रकोप हुआ। वन अग्नि की तरह वह भयंकर रोग फैला। भारत में पहली बार इस भयंकर रोग का प्रकोप हुआ था। अतएव सरकार ने एक कानून बनाकर रोग को रोकने के लिये कुछ अधिकार ले लिये और उसकी व्यवस्था करने के लिये श्री रैण्ड को प्लेग कमिश्नर के पद पर नियुक्त  कर दिया। श्री रैण्ड भारतीयों से घृणा करने वाले दम्भी और इस कार्य के लिये सर्वथा अयोग्य व्यक्ति थे। रैण्ड ने प्लेग के रोकथाम के लिये जो अत्याचार किए उनसे जनता कांप उठी। जो भी व्यक्ति अस्वस्थ लगता उसको पकड़कर शिविर में भेज दिया जाता। गृहमंदिर में जूते पहने घुस जाते। गृहस्वामियों को अपमानित करते। दुकानों के ताले तोड़ दिये गये। प्लेग के रोगियों के जो हाॅस्पिटल (शिविर) स्थापित किए गए। वहां की दशा अत्यन्त शोचनीय थी। लोग पशुओं की तरह मर रहे थे। अतएव कोई भी व्यक्ति जिसे प्लेग होता, वहां नहीं जाना चाहता था। वह घर में मर जाना पसंद करता था। प्लेग अधिकारी पुरुषों को बिलकुल नंगा करते व उनके शरीर को देखते और स्त्रियों को अपनी चोली उतारने के लिये विवश किया जाता और उनको अपने घाघरों और साड़ी को ऊँचा उठाने के लिये कहा जाता। रैण्ड के पास जनता के प्रतिनिधि गए परन्तु उसने उनके प्रतिवेदन पर ध्यान नहीं दिया। रैण्ड के अत्याचारों से जनता त्राहि- त्राहि कर उठी। सभी पत्रों ने इस अत्याचार का विरोध किया। 
रैण्ड ने और अधिक क्रूरता से अपने अत्याचार को जारी रखा। जब प्रत्येक मकान की तलाशी ली जाती तो केवल पुरुषों को नंगा करके तथा स्त्रियों की चोली उतरवाकर तथा अधोवस्त्र को ऊँचा उठवाकर ही अपमानित नहीं किया जाता वरन् देवमंदिर में सिपाही घुस जाते और मूल्यवान् वस्तुओं को भी हथिया लेते। लोकमान्य तिलक का हृदय इस भयंकर अपमान तथा अत्याचार से क्षुब्ध हो उठा। उन्होंने अपने पत्र केसरी में 4 मई 1897 को बम्बई सरकार पर कड़ा प्रहार किया और स्थानीय नेता और सम्भ्रान्त जन को नीचे लिखे शब्दों में फटकारा - 
‘‘क्या उनका यह कर्तव्य नहीं था कि वे सिपाहियों के इन अन्यायपूर्ण कृत्यों का प्रतिकार करने के उपाय ढूंढते और पूना के पीड़ित नागरिकों को दोहरी महामारी प्लेग तथा युरोपियन सिपाहियों द्वारा प्रत्येक गृह की तलाशी लेने से रक्षा करते। कम से कम उन्हें नगर में ठहराना चाहिए था। जिससे वे सर्वसाधारण की व्यावहारिक सहायता कर सकते। परन्तु वे नगर छोड़कर भाग गए और बाहर से वे पूना वासियों को इन गोरे सिपाहियों के अत्याचारांे का प्रतिकार करने के लिये कहते हैं।’’5 
चापेकर बन्धुओं का शौर्य जाग उठा और उन्होंने रैण्ड की हत्या करने का निश्चय कर लिया। 22 जून 1897 को गवर्नर हाऊस से महारानी विक्टोरिया के साठवें राज्यारोहण उत्सव से लौट रहा था। उसके साथ लेफ्टिनेंट आयस्र्ट भी था। चापेकर बन्धुओं ने उन दोनों को भी गोलियों से मार दिया। लेफ्टिनेंट आयस्र्ट अपनी बग्घी में तुरन्त मरकर गया जबकि रैण्ड की 3 जुलाई 1897 को प्रातः काल मृत्यु हो गई। 
9 अगस्त को दामोदर चापेकर गिरफ्तार हुए। न्याय का नाटक हुआ। ज्यूरी ने उन्हें निर्दोष घोषित कर दिया। ज्यूरी को दबाया गया और उसने सरकार के प्रभाव में आकर उन्हें दोबारा दोषी घाषित कर दिया। 18 अप्रैल 1898 को प्रातः 6ः40 बजे यरवदा जेल में वीरवर दामोदर चापेकर को फांसी दे दी गई। प्रसन्नमुख हाथ में गीता की पुस्तक लेकर जब वह वीर फांसी के तख्ते पर चढ़ रहा था तो उसने नारायण जय गोपाल हरि कहा और मातृभूमि के लिये अपने प्राणों की आहुति दे दी। होना तो यह चाहिए था कि मातृभूमि की बलिवेदी पर आत्मबलिदान करने वालों के फांसी के दिन देश वासी उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते। पर देश उन्हें भूल गया।
चापेकर बन्धुओं ने एक क्रांतिकारी दल खड़ा कर लिया था जिसमें युवकों को भर्ती किया जाता था और देश को स्वतंत्र कराने के लिये क्रांति की दीक्षा दी जाती थी तथा क्रांतिकारी कार्य करने का प्रशिक्षण दिया जाता था। सरकार को यह संदेह था कि रैण्ड की हत्या में चापेकर बन्धुओं के अतिरिक्त पूना के अत्यन्त प्रतिष्ठित नागरिक नातू बन्धुओं का भी हाथ था। अस्तु सरकार ने नातु बन्धुओं  को भी निर्वासित कर दिया।6 
सरकार का लोकमान्य तिलक पर भी रैण्ड की हत्या के संबंध में संदेह था परन्तु कोई प्रमाण न मिल सकने के कारण ये उन पर रैण्ड की हत्या के संबंध में कोई कार्यवाही न कर सके। अस्तु उन पर राजद्रोह का अभियोग चलाया गया। दामोदर, बालकृष्ण और वासुदेव चापेकर ने मातृभूमि की बलिवेदी पर अपनी आहुति दे दी और अद्भुुत साहस शौर्य का परिचय दिया। इसका कारण यह था कि उनकी जननी देशभक्त और वीर थी जिन्होंने अपने तीनों पुत्रों का मातृभूमि की बलिवेदी पर बलिदान कर दिया। 
शिवाजी उत्सव के समय लोकमान्य तिलक ने जो भाषण दिया, उसको ‘केसरी’ ने 15 जून, 1897 के अंक में प्रकाशित किया। लोकमान्य ने अपने भाषण में कहा था- ‘‘अफजल खाँ को मारने में क्या महाराज शिवाजी ने पाप किया? इस प्रश्न का उत्तर महाभारत में मौजूद है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने अंग्रेजों और रुधिर- सम्बन्धियों को मारने का परामर्श दिया है। फल की इच्छा किए बिना जो कृत्य किए जाते हैं। उनमें कोई दोष नहीं होता। शिवाजी महाराज ने अपने स्वार्थ के लिए कुछ नहीं किया। उन्होंने अफजल खां का सार्वजनिक हित वर्धन के न्याय संगत उद्देश्य को पूरा करने के लिये मारा था। यदि चोर किसी के मकान में घुस आए और गृहस्वामी की भुजाओं में उनको निकाल बाहर करने की शक्ति न हो तो बिना किसी संशय के उसे उन्हें अन्दर बंद कर देना चाहिए और खड़े- खड़े जला डालना चाहिए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने इन म्लेच्छांे को भारत पर शासन करने का ताम्रपत्र नहीं दिया है। 
महाराज शिवाजी ने उनको अपनी पितृभूमि से निकाल बाहर करने का प्रयत्न किया था उसमें कोई पाप नहीं है। 
सरकारी तंत्र अर्थात् नौकरशाही को पंगु बना देने के लिये तथा सर्वसाधारण को देश की स्वतंत्रता के लिए प्रेरणा देने के लिए पृथक्- पृथक् अधिकारी व्यक्तियों की हत्याएँ करना ही सर्वोŸाम उपाय है। अंग्रेज और भारतीय अधिकारियों को आतंकित कर दो। ऐसा करने से दमन का सरकारी तंत्र ढह जाएगा, वह निर्बल और भयातुर हो जाएगा। विद्रोह की प्रारंभिक अवस्था में पृथक् हत्याएँ अभीष्ट हैं।’’
जब सावरकर बम्बई में थे तो पूना के विद्यार्थियों ने उन्हें अगम्य गुरु से साक्षात्कार करने के लिए आमंत्रित किया उन्होंने पूना में क्रांतिकारी भाषण दिए थे। सावरकर उनसे मिलने पूना गए और 23 फरवरी 1906 को उनसे मिले। जब वह रहस्यमय व्यक्ति योग के चमत्कार, अपने भ्रमण और भगवान की अनुकम्पा के सम्बन्ध में रहस्यमयी भाषा में बात करने लगा तो सावरकर ने उनको टोका और अपने राजनीतिक विचारों पर प्रकाश डालने के लिए कहा। 
अगम्य गुरु अपने नाम के अनुसार ही दुरुह थे। परन्तु गुप्तचरों का यह आविष्कार कि सावरकर की जन्मजात अन्तःस्फुर्ति अगम्य गुरु द्वारा प्रेरित थी हास्यास्पद था। वे निर्बोध व्यक्ति यह नहीं जानते थे कि रहस्यवाद और क्रान्ति का कभी साथ नहीं हो सकता। 
इस प्रकार महाराष्ट्र के क्रांतिकारी आंदोलन छत्रपति शिवाजी, बाल गंगाधर तिलक, वीर सावरकर तथा अन्य विभिन्न क्रांतिकारियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। 

सन्दर्भ सूची

1. सहाय, शंकर सक्सेना- क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास, पृ0 182
2. उपरोक्त- 184
3. उपरोक्त- 188
4. उपरोक्त - 195
5. ग्रोवर, बी0एल0, यशपाल - आधुनिक भारत का इतिहास, पृ0 310- 311
6. नागोरी, एस0एल0 - भारत का मुक्ति संग्राम पृ0 91-92
7. गोहाई, हीरेन- भारतीय संग्राम में क्रंातिकारियों का योगदान, 2014, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत सरकार नई दिल्ली, छठज् प्छक्प्।.
8. नगोरी, एस0एल0- भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन, पब्लिशिंग हाऊस गोविन्दपुर- जयपुर
9. सिंह, जगजीत - गदर पार्टी लहर (पंजाबी) 2000, नवयुग, नई दिल्ली
10. सिंह गुरचन सेसरा- गदर पारटी दा इतिहास (पंजाबी), देशभक्त यादगार हाॅल, जालंधर
11. सान्याल शचीन्द्रनाथ, बंदी- जीवन, 1986, आत्माराम एण्ड सन्स दिल्ली
12. ब्ींजजमतहमम  डंदपदप क्व ंदक क्पम च्मदहनपद प्दकपं ठववा दृ
13. सिंह कर्तार सराभा - गदर पार्टी नायक, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत सरकार नेहरु भवन वसंत कुंज नई दिल्ली
14. सरकार सुमित - आधुनिक भारत राजकमल प्रकाशन, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज नई दिल्ली।
15. नागोरी, एस0एल0 - भारत का मुक्ति संग्राम, भाग- 1 राज पब्लिकेशन हाऊस 44 गोविंदपुर - जयपुर 
16. सहाय, शंकर सक्सेना - क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास, 1999 ग्रंथ विकास राजपार्क आदर्श नगर जयपुर 
17. ग्रोवर, बी0एल0 (यशपाल)- आधुनिक भारत का इतिहास- 2003, एस0चंद कम्पनी रामनगर नई दिल्ली
18. डाॅ0 वर्मा, दीनानाथ- आधुनिक भारत का इतिहास- 2000, ज्ञानदा प्रकाशन दरियागंज, नई दिल्ली
19. डाॅ0 पाण्डेय, धनपति - आध्ुानिक भारत का इतिहास, मोतीलाल बनारसी दास बंगलो रोड़ दिल्ली 
20. ग्रोवर, बी0एल0 यशपाल- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम तथा संवैधानिक इतिहास 2000 रामनगर नई दिल्ली


अध्याय- 5

पंजाब एवं उत्तर भारत मंे क्रांतिकारी आंदोलन

1900 के आसपास पंजाब की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो उठी थी। 1897 से 1900 के मध्य पंजाब में भयंकर दुर्भिक्ष पड़े। जिसमें लाखों व्यक्ति मृत्यु के मुख में चले गए। उधर सरकार ने माल गुजारी व सिंचाई की दरों को इतना अधिक बड़ा दिया कि पंजाब का किसान उस भयंकर कर भार से कराहने लगा। 1907 में पंजाब सरकार ने बारी-हुआब और चिनाव नहर उपनिवेशों में खेती की भूमिका के संबंध में भूमि अतिक्रमण कानून बना दिया। जिससे कि उन उपनिवेशों में बसने वाले किसानों की भूमि स्वामित्व पर कुछ प्रतिबंध लगा दिए गए। जिससे कि वे क्षुब्ध हो उठे। पंजाब में बेगार के विरुद्ध रोष और क्षोभ पहले से ही था। इनके विरुद्ध पंजाबी साप्ताहिक पत्र ने खुलकर प्रचार किया। पंजाबी के संपादक और प्रकाशक को गिरफ्तार कर लिया गया। पंजाब में क्रांतिकारी नेता सरदार अजीत सिंह ने तथा सूफी अंबाप्रसाद ने इस जन आक्रोश का लाभ उठाकर अपने क्रांतिकारी सहयोगियों को आगा हैदर और सैय्यद हैदर रजा की सहायता से भारतीय देश संघ और ‘भारतमाता’ क्रांतिकारी संगठन खड़े कर दिए।1 इस प्रकार सरदार अजीतसिंह के नेतृत्व में इन राजनीतिक संगठनों में लाखों पंजाबी संगठित हो गए। अजीत सिंह व सूफी अंबा प्रसाद अब खुलकर ब्रिटिश शासन को समाप्त करने के लिये विद्रोह की भाषा बोलने लगे। सभाओं में कहते कि जब तक हम स्वतंत्र नहीं होते तब तक हमारी दयनीय दशा में सुधार नहीं हो सकता। वे लोगों से कहा करते कि सरकार की सैनिक शक्ति से भयभीत मत हो। 30 करोड़ भारतीय इस सरकार को खदेड़ सकते हैं। उनका कहना था कि देश की स्वतंत्रता के लिए युद्ध करते हुए मरना भूख और प्लेग से मरने से कहीं श्रेष्ठ है। 
लाला लाजपतराय के नेतृत्व मंे आंदोलन और अधिक उग्र तथा तेजवान हो उठा। समस्त पंजाब में, ग्रामों और नगरों में जन आक्रोश उमड़ पड़ा। गांवों में ही नहीं, लाहौर, फिरोजपुर, अमृतसर, रावलपिंडी आदि नगरों में भी विराट् शासन विरोधी प्रदर्शन हुए। रावलपिंडी में तो प्रदर्शनकारियों और सेना में जमकर युद्ध हुआ। प्रदर्शन से सहानुभूमि प्रदर्शित करने के अपराध में रावलपिंडी के पांच प्रमुख वकीलों को 1 मई अदालत में उपस्थित होने की आज्ञा दे दी गई। 
केवल सर्वसाधारण में ही यह क्रांतिकारी सीमित नहीं रही, क्रांतिकारियों ने सेनाओं में प्रवेश कर सेना में भी क्रांतिकारी भावना उत्पन्न कर दी।2 
जब पंजाब में क्रांतिकारी विचारधारा उत्पन्न हो चुकी थी तो लाला हरदयाल जो कि अद्भुत स्मरण शक्ति और मेधा के धनी थे और प्रगाढ़ पाण्डित्य के  लिए प्रसिद्ध थे। भारत सरकार द्वारा प्रदत्त छात्रवृत्ति को त्यागकर आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से भारत लौट आए और दिल्ली और लाहौर में क्रांतिकारी दल को संगठित करने का कार्य करने लगे। भारत आकर लाला हरदयाल युवकों को इकट्ठा किया और उनको क्रांतिकारी कार्यों की शिक्षा देने लगे। 
           पंजाब सरकार ने इस क्रांतिकारी विचारधारा के प्रचार को बंद करने के लिये तथा क्रांतिकारी को लंबे समय के लिए कारावास तथा अण्डमान में बंद करने के उद्देश्य से नीचे लिखे व्यक्तियों पर अभियोग चलाया - 
सरकार अजीत सिंह, सौवर ंिसंह और किसन सिंह, सूफी अंबा प्रसाद, लाल चंद फलक, नंद गोपाल ईश्वरी, प्रसाद, मुंशीराम, जियाहुल हक, बूटा सिंह और गणेशी लाल।
लाला हरदयाल ने विदा होने के समय अपने शिष्यों और सहयोगियों को तीनसूत्री कार्यक्रम दिया था- समाचार पत्रांे तथा व्यक्तिगत संपर्क के द्वारा जनमत को संगठित करना तथा लोगों में उत्साह भरना और भारतीय देशी राज्यों में फैल जाना। सरकार को सैन्य शक्ति अधिकर गांवों से प्राप्त होती है। पुलिस के सिपाही शहर की गंदी गलियों से प्राप्त होते हैं तथा चालक शक्ति विश्वविद्यालयों से प्राप्त होती है। भारत के देशी राज्य सरकार की आरक्षित का काम करते हैं। सभी दिशाओं में सरकार की शक्ति का तलोच्छेदन करना आवश्यक है। एक बार क्रांतिकारियों के पैर जम गए तो क्रांतिकारी शक्तियां स्वयमेव शक्ति और संवेग को प्राप्त कर लेगी। यही नहीं, जनता में और क्रांतिकारी विचारों का उदय होगा। इसके अतिरिक्त दल को विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले भावनाप्रधान युवकों को अपने दल में सम्मिलित करने का प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार रास बिहारी मास्टर, अमीरचंद, अवध बिहारी, बाल मुकुंद, भाई परमानंद आदि क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर उन्होंने उत्तर भारत में क्रांतिकारी दल का नेतृत्व संभाल लिया।
           पंजाब में क्रांतिकारी आंदोलन के प्राण स्रोत सरदार अजीत सिंह थे। वे एक सच्चे देशभक्त होने के साथ - साथ उच्च कोटि के वक्ता तथा संगठनकर्ता भी थे। 1907 ई0 में सरदार अजीत सिंह, भाई परमानंद तथा लाला हरदयाल ने क्रांतिकारियों का संगठन किया और उन्होंने पंजाब सरकार के ‘कालाना इंजेक्शन एक्ट’ का विरोध किया।3 सरकार के इस एक्ट के कारण लाहौर तथा रावलपिंडी में कुछ उपद्रव हुए। सत्यपाल एण्ड प्रबोधचंद के शब्दों में - ‘‘सरदार अजीत सिंह, सूूफी अंबा प्रसाद, लाला पिंडीदास एवं लालचंद ने पंजाब के लोगों में जागृति लाने के लिए वही कार्य किया जो बंगाल में बंकिमचंद चटर्जी तथा अन्य बंगाली लेखकों ने किया।‘‘ पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर डेनियाल इवेटसन ने घबराकर ब्रिटिश सरकार को लिखा कि - ‘‘ यदि इस बढ़ती हुई राजनीतिक अशांति को रोकने का यत्न न किया गया तो संभव है कि पंजाब में फिर से 1857 की वाली घटनाएँ घटे।’’ इस प्रकार 1909 में सरकार ने अपनी भूमि संबंधी नीति में जनता की इच्छानुसार परिवर्तन कर दिया। जिससे पंजाब में शांति स्थापित हो गयी। और क्रांतिकारी एक प्रकार से बन्द हो गए। 

नवजवान सभा - 
                 सुखदेव भगतसिंह की नौजवान सभा के संगठन मंत्री और हिन्दुस्तान समाजवादी पंजातंत्र संघ के पंजाब प्रांत के संयोजक थे। सुखदेव का जन्म लायलपुर में सन् 1905 में हुआ था। इनके जन्म के पूर्व ही पिता का निधन हो जाने से इनके पालन- पोषण और शिक्षा- दीक्षा का प्रबंध इनके चाचा लाला अचिंतराम ने किया था।4 
सुखदेव छात्र जीवन में बड़े मेधावी थे। ये बहुत ही सहनशील और गम्भीर प्रकृति के तर्कशील युवक थे। इनके व्यक्तित्व पर आर्यसमाज का विशेष प्रभाव था। अपनी किशोर अवस्था में ही सुखदेव ने शादी न करने का निर्णय  ले लिया था। नेशनल कालिज लाहौर के छात्र जीवन में भगतसिंह के साथ उनकी घनिष्ठ मित्रता हो गई। भगतसिंह और सुखदेव ने मिलकर पंजाब के नवयुवकों को देशभक्ति और क्रांति की लहर पैदा करने के लिए ‘‘नौजवान भारत सेना’’ की स्थापना की। 

हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी (भ्त्।) -
                                  प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ब्रिटेन का बिना शर्त समर्थन किया था। युद्धकाल में इंग्लैण्ड के रवैये से गाँधी जी और दूसरे उदारवादी नेताओं को कुछ ऐसी आशा बन गई थी कि युद्ध में विजय के बाद ब्रिटेन भारत को स्वशासन प्रदान कर देगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। भारतीय जनता की स्वशासन की मांग को स्वीकार नहीं किया गया। युद्ध में सहायता के बदले में अंग्रेजों ने भारतीय जनता को रौलेट एक्ट जैसे दमनकारी कानून का उपहार दिया। रौलेक्ट एक्ट के विरोध में प्रदर्शन करने वाली, शान्तिप्रिय जनता का जलियां वाला में नरसंहार हुआ। भारतीय जनता के साथ की गई ब्रिटेन की इस धोखा-धड़ी ने प्रथम विश्वयुद्ध के सहयोगी गाँधी जी को भी अंग्रेजी सरकार का असहयोगी बना दिया। गाँधी जी के नेतृत्व में स्वशासन प्राप्त करने के लिए कांग्रेस ने 1921 में असहयोगी आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। महात्मा गाँधी ने साल भर में स्वराज्य प्राप्ति का वायदा किया और क्रांतिकारियों से आग्रह किया कि वे एक वर्ष क्रांतिकारी गतिविधियांे से विरत रहे। क्रांतिकारियों ने उनका प्रस्ताव स्वीकार किया और उन्हें विश्वास दिलाया कि वे साल भर कोई आतंकवादी कार्यवाही नहीं करेंगे। 
गँाधी जी का असहयोग आंदोलन सारे देश में बड़ी तेजी से चला। मन्मथनाथ गुप्त के अनुसार गाँधी जी के किये गये वायदे के अनुरूप अनेक क्रांतिकारी असहयोग आंदोलन में कूद पड़े।5 चन्द्रशेखर आजाद, विष्णु शरण, दुबलिश, राजदुलारे त्रिवेदी, बजरंग बली गुप्त आदि अनेक क्रांतिकारी 1921 के असहयोग आंदोलन में शामिल थे। देश भर में असहयोग आंदोलन आंधी की तरह आया । स्कूल- काॅलेज छोड़कर छात्र आंदोलन में कूद पड़े। जब आंदोलन अपने उग्रतम रूप में पहुंचा तो गोरखपुर के चोरी- चोरा क्षेत्र में पुलिस और जनता की भिड़न्त हो गई। उत्तेजित भीड़ ने थाना जला दिया। जिसमें 23 व्यक्ति मारे गए। इस हिंसक दुर्घटना के कारण गांधी जी ने आंदोलन वापस ले लिया। चरमोत्कर्ष पर पहुंचे जन आंदोलन के अचानक रोक देने से सारा देश निराशा में डूब गया। मन्मथनाथ गुप्त के अनुसार थोड़े दिन के लिए जो आशा की बत्ती जल उठी थी वह बुझ सी गई, जो क्रांतिकारी अब तक चुप बैठे थे, वे आगे बढ़े और फिर से बम आदि बनाना, संगठन करना और दल बनाना शुरु हो गया।
क्रांति की इस दिशा में असहयोग आंदोलन के बाद सबसे महत्वपूर्ण बनाने वाले क्रांतिकारी सचीन्द्र सान्याल ही थे। सचीन्द्र को क्रांतिकारी गतिविधियों की मुख्य भूमि उत्तरप्रदेश ही रही।6 
सचीन्द्र सान्याल उत्तरभारत के क्रांतिकारियों में प्रमुखतम क्रांतिकारी थे। वे ही सम्भवतः एक मात्र ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्हें अंग्रेज सरकार ने दो बार काले पानी की सजा दी। इस बंगाली क्रांतिकारी जन्म सन् 1893 ई0, 5 जून को हुआ था। क्रांति के मार्ग पर वे रासबिहारी बोस के उत्तराधिकारी थे उन्होंने ‘बंदी जीवन’ नाम की एक पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक मेें अनेक समय की सब क्रांतिकारी गतिविधियों का विवरण आ गया है। 
क्रांतिकारी सचीन्द्र सान्याल आजीवन क्रांतिपथ की मसाल बनकर जीए। उन्होंने 1914- 1915 के गदर पार्टी आंदोलन में हिस्सेदारी की और गिरफ्तार हुए। ये बनारस षड्यंत्र के नेता माने गए। सम्राट के विद्रोह तथा सेना को भड़काने के अपराध में उन्हें आजीवन काले पानी की सजा मिली। लगभग चार वर्ष काला पानी भोगकर 20 फरवरी, 1920 ई0 को वे आम माफी में छोड़ दिए गए। 1920 ई0 में कालापानी से छूटकर सचीन्द्र ने असहयोग आन्दोलन में गाँधी जी का सहयोग किया। जब चोरी- चोरा काण्ड के बहाने गाँधी जी ने असहयोग आंदोलन वापिस ले लिया तो सचीन्द्र जैसे क्रान्तिकारी को घोर निराशा हुई और इस महान् क्रांतिकारी ने एक बार फिर से क्रांतिकारी दल खड़ा करने के लिए कमर कस ली। सचीन्द्र ने एक वर्ष घोर परिश्रम करके जो संगठन बनाया वह पूरे भारत में फैल गया। 1923 ई0 के प्रारंभ तक संयुक्त प्रांत और बिहार में लगभग 20 से 25 बिल्लव केन्द्रों की स्थापना हो गयी थी। ंइस क्रांतिकारी संगठन के प्रमुख नेता राम प्रसाद बिस्मिल, सुरेश चक्रवर्ती, विष्णु शरण, दुबलिश, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह, अशफाक उल्ला, यतीन्द्र नाथ दास, राम दुलारे द्विवेदी, मनीन्द्र नाथ बनर्जी, रमेश गुप्त, मनमोहन गुप्त आदि थे। सचीन्द्र ने अपने क्रांतिकारी दल का नाम ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ (भ्त्।) रखा और उसके संगठन तथा कार्यक्रम आदि की एक नियमावली तैयार कर दी। 
भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास में क्रांति दल को संगठन की दृष्टि से देखा जाय तो हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन ही सबसे पहला क्रांतिकारी दल था। यही वह दल था जिसके क्रांतिकारियों ने रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में 9 अगस्त, 1925 ई0 को काकोरी नामक स्टेशन पर ट्रेन रोककर सरकार खजाना लूटा और अंग्रेज सरकार को खुली चुनौती दी। इतिहास में क्रांतिकारियों का यह कृत्य काकोरी षड्यंत्र के नाम से विख्यात है। काकोरी रेल डकैती के बाद ‘‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’’ के अधिक से अधिक क्रांतिकारी गिरफ्तार कर लिए गए और जो दल सचीन्द्र ने बड़े परिश्रम से खड़ा किया था वह छिन्न- भिन्न हो गया। परन्तु यह सब हो जाने पर भी सचीन्द्र ने साहस नहीं छोड़ा और उन्होंने बहुत शीघ्र ही चन्द्रशेखर और भगतसिंह जैसे नये युवा क्रांतिकारियों की दूसरी कतार खड़ी कर दी तथा ‘‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’’ को फिर एक क्रांतिकारी शक्ति मिल गई।
भ्त्।. के प्रमुख क्रांतिकारियों में रामप्रसाद बिस्मिल भी थे। इनका जन्म उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर में हुआ था। वे एक क्रांतिकारी होने के साथ - साथ बिस्मिल एक उच्च कोटि के कवि और शायर भी थे। उनकी गजलों में देश के लिए बलिदान की आग दहकती है। बिस्मिल की एक गजल की यह पंक्तियाँ आज भी भारतवासियों के कण्ठ से गूंजती रहती है- 
‘‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है।।’’7
जेल जीवन के अंतिम दिनों में बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा भी लिख दी थी जो अब अपने संशोधित रूप में मदन लाल वर्मा कांत द्वारा संपादित होकर ‘‘सरफरोशी की तमन्ना’’ नाम से प्रकाश में आ गई है। 
बिस्मिल का पहला क्रान्तिकारी एक्शन मैनपुरी षड्यंत्र काण्ड था। इस काण्ड में उन्होंने पं0 गेंदालाल दीक्षित के नेतृत्व में नवी ‘शिवाजी समिति’ के क्रान्तिकारी के रूप में अंग्रेज सरकार के विरुद्ध सशस्त्र कार्यवाही हिस्सा लिया था। इस काण्ड में और लोग तो गिरफ्तार हो गये लेकिन बिस्मिल फरार रहे। बाद में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद आम मुआफी मिल जाने से बिस्मिल का फरार जीवन खुले में आ गया। 
बिस्मिल का दूसरा क्रान्तिकारी एक्शन काकोरी रेल डकैती काण्ड था। इस काण्ड के अपराध में बिस्मिल को फाँसी की सजा हुई। इस एक्शन में बिस्मिल के सेनापतित्व मंे हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ के दस क्रांतिकारियों ने हिस्सा लिया था। वे लोग थे- बिस्मिल, चन्द्रशेखर आजाद, आशफाकुल्ला खाँ, राजेन्द्र लाहिड़ी, शचीन्द्रनाथ बख्शी, मुकुन्दी लाल, मन्मथनाथ गुप्त, बनवारी लाल, केशव और मुरारी लाल शर्मा। 
‘काकोरी काण्ड’ में अशफाक ने बिस्मिल के साथ बढ़कर हिस्सा लिया और उसी अपराध में इन्हें फांसी की सजा हुई। अशफाक को राजनैतिक दर्शन उनकी खुदापरस्ती और देशभक्ति के सिवा कुछ नहीं था। उनका यह दर्शन फांसी के कुछ घंटे पूर्व लिखी उनकी इन पंक्तियों में पूरी तरह आ जाता है8 - 

कुछ आरजू नहीं है,
आरजू तो यह है।
रख दे कोई जरा सी,
खाके वतन कफन में।।
ऐ पुख्ताकार- उत्फत,
                                हुशियार डिग न जाना।
                 मैराज आशिकां हैं,
         इस दौर और रसन में।

           बिस्मिल अशफाक के अलावा हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के और भी कितने ही देशभक्त क्रान्तिकारी थे। जिन्होंने देश की आजादी के लिए जेलों की कठोर यातनाएँ सहीं थीं, फिर फांसी के फंदे पर झूल गए। सबका एक ही राजनैतिक दर्शन था- अंग्रेजी प्रजातंत्र दल का नाम अब नये दल के रूप में हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र दल कर दिया गया। 

हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातंत्र संघ (भ्ण्ैण्त्ण्।ण्) - 
                                            भारत में राष्ट्रवादी, समाजवादी क्रान्ति अपने उग्रतम रूप में बंगविभाजन के वर्ष 1905 से आरम्भ होकर भगत सिंह और उसके क्रान्तिकारी साथियों की फांसी के वर्ष 1931 तक ही मुख्यतः जारी रह सकी। यह ठीक है कि सशस्त्र क्रांति की इस धारा का अंतिम अध्याय नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज के संग्राम द्वारा 1945 तक लिखा गया किन्तु बड़े अंश में उद्देश्य की समानता होने पर भी राजनैतिक दृष्टि से यह भिन्न दिशा का कदम था। इसका कारण भी बहुत स्पष्ट है। भगतसिंह और उसके क्रांतिकारी साथियों के दल हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातंत्र संघ (भ्ण्ैण्त्ण्।ण्) का उद्देश्य जहाँ एक ओर अंग्रेजी साम्राज्यवाद की दासता की जंजीरों को तोड़ फेंकना था वहीं, दूसरी ओर उसका महान् उद्देश्य भारत के राष्ट्रीय जीवन में एक आमूलचूल परिवर्तन लाना भी था।9 इस आमूलचूल परिवर्तन का नाम यदि बहुत ही स्पष्ट भाषा में कहा जाए तो एक नई मानवतावादी समाजवादी क्रांति लाना था। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के सामने सबसे महान् उद्देश्य एक ही था और वह यह था कि जैसे भी बने ताकत के बल पर अंग्रेजी साम्राज्य को भारत से उखाड़ कर फेंक दिया जाए। उनका कहना था आजादी मांगी नहीं जाती, ली जाती है। भारत की आजादी के इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उनको यूरोप के उन तानाशाहों से हाथ मिलाने में भी कोई दोष नहीं लगता था जो ब्रिटिश साम्राज्य के दुश्मन थे और ब्रिटेन की ही तरह विश्व की महान् साम्राज्यवादी शक्ति बनाने का सपना देख रहे थे। उनका राजनैतिक सूत्र बहुत ही स्पष्ट था। दुश्मन का दुश्मन हमारा मित्र है। अपने इसी राजनैतिक चिन्तन के अनुसार उन्होंने भारत से अंग्रेजी साम्राज्य को उखाड़ फेंकने के लिए द्वितीय विश्वयुद्ध की परिस्थितियों को भारत के बहुत ही अनुकूल अनुभव किया।
दुश्मन के दुश्मन को अपना मित्र बनाने के लिए उन्होंने तत्कालीन परिस्थितियों में समाजवादी और गैर समाजवादी ताकतों में भेद करना आवश्यक नहीं समझा।
सुभाष की स्पष्ट मान्यता थी कि एक देश भक्त को अपनी मातृभूमि की आजादी के लिए शैतान से भी मित्रता करने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए। द्वितीय विश्वयुद्ध का यह घटनाक्रम यही बताता है कि व्यक्ति की सारी योजनाएँ और उसकी विचारधारा कठोर वास्तविकताओं से संचालित होती है और अनेक बार बड़े से बड़े इतिहास नायकों को उन घटनाओं से समझौता करना पड़ता है जिनकी वे स्वप्न में भी कल्पना नहीं करते। समाजवादी क्रांति के देश रूस के बारे में नेताजी सुभाषचंद्र बोस की यही नियति हुई। उनके लाख प्रयत्न करने पर भी निरंकुश हिटलरशाही को रूस पर आक्रमण करने से नहीं रोक सका और उन्हें जर्मनी से हाथ मिलाकर भारत के अजादी के लिए चलना पडा। अंत में जर्मनी के रूस पर आक्रमण से खिन्न होकर ही उन्होने सारे खतरे मोल लेकर जर्मनी से जापान को प्रस्थान किया और वहां 21 अक्टूबर, 1943 को आजाद हिन्द फौज की कमान हाथ में लेकर जापान के सहयोग स े दिल्ली चलों के नारे के साथ देश के आजादी के लिए अंग्रेजी सेनाओं से खुला युद्ध छेड दिया। द्वितिय विश्व युद्ध में जर्मन , इटली और जापान का पतन हो जाने के बाद भी नेता जी सुभाष चन्द्रबोस के मन में समाजवादी रूस के प्रति एक - एक स्वाभाविक मित्र (छंजनतंस थ्तपमदक) की धारणा नष्ट नहीं हुई थी । इंफाल में आजाद हिंद फौज की विफलता के बाद और बर्मा के हाथ से निकल जाने के बाद जब उन्होने देखा की जापान का भी पतन हो गया है। और आजाद हिन्द फौज और उसके मित्र देशांे की कोई शक्ति शेष नहीं रह गई है तो उन्होंने सारे जोखिम झेलकर भी एक उम्मीद रूस की ओर से टिकाई थी। जापान का आत्मसमर्पण हो चुकने कर उन्हांेने सिंगापुर से रूस के लिए ही उड़ान भरी थी जिसके बीच में ही विमान दुर्घटना हो जाने पर नेता जी के निधन का समाचार जापान रेडियो में प्रसारित किया गया था। इस दुर्घटना के बाद नेता जी के निधन का समाचार जापान रेडियो से प्रसारित किया गया था। हमारा उद्देश्य तो भारत की सशस्त्र राष्ट्रवादी और समाजवादी क्रांति के विकास की पृष्ठभूमि में यह स्पष्ट करना है कि हमारी यह क्रांति इतिहास के किस- किस मोड़ पर नई- नई दिशा ग्रहण करती चली गई। 
भगतसिंह और चन्द्रशेखर के हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र दल का सबसे पहला ऐतिहासिक एक्शन लाहौर के पुलिस उप-अधीक्षक सान्डर्स की दिन- दहाड़े हत्या कर देने के रूप में सामने आया।10 
(भ्ण्ैण्त्ण्।ण्) के एक ऐतिहासिक एक्शन ने उसे सम्पूर्ण राष्ट्र की आंखों में एक महान् देश भक्तों का क्रांतिदल बना दिया। लाहौर में साइमन कमीशन के बहिष्कार में पंजाब केसरी लाला लाजपत राय प्रदर्शनकारियों का नेतृत्व कर रहे थे। क्रांतिदल का यह एक्शन अंग्रेजी के दमनकारी पुलिस शासन को खुली चुनौती था। अगले दिन जब सूरज निकला तो लाहौर के लोगों ने दीवारों पर एक गुलाबी रंग का पोस्टर पढ़ा जो हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र (भ्ण्ैण्त्ण्।ण्) की ओर से ब्रिटिश नौकरशाही को सावधान करने वाला था। इस पोस्टर में यह बता दिया गया था कि यदि विदेशी अंग्रेज सरकार इसी तरह से हमारे राष्ट्र का दमन और अपमान करेगी तो हमारा क्रंातिदल उससे बदला चुकाने को कोई चुक नहीं करेगा।
भगतसिंह ने कलकŸाा में रहते हुए ही दूसरा एक्शन करने की योजना बना ली थी और उसकी योजना के लिए अब केवल  (भ्ण्ैण्त्ण्।ण्) की स्वीकृति की आवश्यकता थी। भगतसिंह लगभग एक पखवाड़ा कलकŸाा में बिताकर तुरंत आगरा लौट पड़े। दूसरे क्रांतिकारी साथी वहाँ पहले से ही मौजूद थे। 
भगतसिंह का दूसरा ऐतिहासिक एक्शन दिल्ली की केन्द्रीय असेम्बली में बम का धमाका था। लाहौर में सांडर्स की हत्या करने के बाद भगतसिंह कुछ दिनों कलकŸाा में रहे। उन्होंने कलकŸाा से आगरा पहुंचे और आगरा में रहकर क्रांतिकारी साथियों से मिलकर बम विस्फोट की योजना बना डाली। 
उन दिनों ब्रिटिश सरकार मजदूरों के विरुद्ध पब्लिक सेफ्टी बिल नामका एक काला कानून बनाने जा रही थी। सब ओर से विरोध किए जाने पर भी ब्रिटिश सरकार अपनी जिद पर अड़ी रही। आखिरकार क्रांतिकारियों ने असेम्बली में बम विस्फोट करके उसके काले कानून के विरोध करने का निश्चय किया।
बम विस्फोट के इस एक्शन के पीछे भगतसिंह का मुख्य उद्देश्य दल की क्रांतिकारी विचारधारा का जमकर प्रचार करना था। यह तय कर लिया गया था कि विस्फोट करने वाले क्रांतिकारी अपनी जगह नहीं छोड़ेंगे। बल्कि स्वयं को गिरफ्तार कराएंगे और अदालत का प्रयोग अपने बयानों के माध्यम से एक प्रचार मंच के रूप में करंेगे। आरंभ में दल ने बम विस्फोट का काम बटुकेश्वर दत्त और शिव वर्मा को सौंपा था। किन्तु बाद में भगतसिंह के घनिष्ठ साथी सुखदेव के आग्रह पर बम विस्फोट में शिव वर्मा की जगह भगतसिंह का शामिल किया गया। इस एक्शन में भगतसिंह को उतारे जाने का अर्थ सीधे- सीधे क्रांतिकारी को फांसी के फंदे की ओर बढ़ाना था। इसका कारण यह था कि भगतसिंह पहले से ही सांडर्स हत्या काण्ड में वांछित अभियुक्त था। यह एक महान् महान् बलिदान का सवाल था किन्तु सुखदेव की समझ इस बारे में बहुत साफ थी कि उसका विचार था कि क्रांति के प्रचार के जिस महान् उद्देश्य को लेकर यह कदम उठाया जा रहा है उसे पूरा करने की योजना भगतसिंह को छोड़कर दल के किसी ओर साथी में नहीं थी। क्रांति के इस महान् उद्देश्य के लिए भगतसिंह ने खुद को तैयार कर लिया। 
         1929 ई0 की 8 अप्रैल का दिन था। केन्द्रीय असेम्बली के हाॅल में पब्लिक सेफ्टी बिल पर विचार हो रहा था। ज्यों ही वायसराय भाषण देने के लिए खड़ा हुआ। हाॅल में जोरदार बम का धमाका हुआ। एक बम भगतसिंह ने और दूसरा सुखदेव ने फेंका था। देानों ने इंकलाब जिंदाबाद किया और क्रांति दल के पर्चे सदन में फेंक दिए। पर्चों में लिखा था - हमने बन्दरों के कान खोलने के लिए विस्फोट किया है। 
इस प्रकार विस्फोट के बाद भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त अपने स्थान पर खड़े रहे। पुलिस उन तक पहुंचने का साहस नहीं जुटा सकी। क्योंकि दोनों के हाथों में पिस्तौल थी और दोनों क्रांतिकारियों ने पिस्तौलें एक ओर रखकर अपने आपको गिरफ्तार करा दिया। 

सन्दर्भ -सूची

1. सहाय, शंकर सक्सेना- क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास, पृ0 196
2. उपरोक्त पृ0 198
3. उपरोक्त पृ0 199
4. उपरोक्त पृ0 200
5. उपरोक्त पृ0 198
6. गुहाई, हीरेन- भारतीय स्वाधीनता संग्राम में क्रांतिकारियों का योगदान, पृ0 55
7. उपरोक्त पृ0 56
8. उपरोक्त पृ0 58-59
9. उपरोक्त पृ0 60

                   अध्याय - 6

                      क्रांतिकारी आंदोलन का विश्लेषण

1857 के विद्रोह के पश्चात् भारतीय स्वाधीनता संग्राम की मुख्य धारा ने शांति तथा अहिंसा का मार्ग अपना लिया था। महात्मा गांधी ने जब यह घोषणा की थी कि स्वतन्त्रता आंदोलन की मूलभूत रणनीति अहिंसा, सत्याग्रह है, उससे कहीं पहले यह आंदोलन शांति के पथ पर  अग्रसर हो चुका था। यह सही है कि केवल गांधी जी के नेतृत्व में ही, इस देश की जनता ने जुनून, उत्साह से विदेशी सरकार को चुनौती दी थी। उस समय जन- साधारण के बीच गरजते सागर की लहरों की तरह साहस, उमंग, शौर्य हिलोरें ले रहे थे। ऐसा नहीं है कि समय- समय पर इस जुनून ने, उत्साह ने हिंसक रूप लिया ही नहीं। चाहे असहयोग आंदोलन हो या 1942 का आंदोलन, समय- समय पर लोगों ने गांधी जी की वैचारिक या सैद्धान्तिक सीमाओं को तोड़ा तथा विदेशी शासन के प्रति उनके मन में बसी घृणा उग्र हिंसक ज्वालामुखी के रूप में फूट पड़ी। लेकिन इस जन- विद्रोह ने कमी सचेत, संगठित रूप में सशस्त्र क्रांति का रूप नहीं लिया।
तब भी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में क्रांतिकारियों ने वीरता, बलिदान, निष्ठा और गहन देशभक्ति के कुछ सुनहरे अध्याय जोड़े। ये वीर देशप्रेमी सशस्त्र संग्राम में विश्वास रखते थे। यहां तक कि अहिंसा के पुजारी भी इन वीर गाथाओं का पूरा सम्मान करते थे तथा ये प्रसंग उनके लिए प्रेरणा के स्त्रोत रहे। सूर्यसेन की वीरता तथा सैन्य कौशल ने समूचे देश को वीरता, शौर्य तथा निःस्वार्थ भाव का पाठ पढ़ाया। जब भगतसिंह को फांसी दी गई, तब हिंसा तथा शस्त्र का मार्ग न अपनाने वाले भी हिल उठे थे। कांग्रेस महासभा ने भी समय- समय पर संकल्प पारित करके क्रांतिकारियों के बलिदान/उत्सर्ग तथा शौर्य के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की । इन वीरों के आत्म बलिदान ने स्वतंत्रता सेनानियों की अमूल्य परंपरा का सूत्रपात किया। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में चले सैन्य अभियान इस परंपरा की पराकाष्ठा थी। ब्रिटिश सरकार के शत्रु देश- जर्मनी तथा जापान से मैत्री करने से लेकर ब्रिटिश सेना के भारतीय सैनिकों को स्वतंत्रता सेनानियों में बदलने तक आजाद हिंद फौज के कार्यकलापों की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएं सशस्त्र क्रांतिकारियों के लिए उदाहरण बन चुकी थी, ये लंबे समय तक अनुकरणीय रहीं। प्रारंभ में, सुभाष चंद्र बोस द्वारा अपनाए गए इस मार्ग के प्रति गांधी जी के मन में आशंकाएं उठना स्वाभाविक था। लेकिन जब नेताजी ने आजाद हिंद फौज के संगठन के समय आत्मा को आलोड़ित करने वाला भाषण दिया तथा सम्मान देते हुए गांधी जी को ‘राष्ट्रपिता’ कहा तो उनके शब्दों से गांधी जी भी हिल उठे। अंत में, स्वयं गांधी जी ने भी नेताजी के आक्रामक उग्र रवैये का महत्व तथा संभावनाएं पहचानीं। इस मान्यता या अभिस्वीकृति से इस तथ्य का सशक्त संकेत मिलता है कि क्रांति का पथ महत्वपूर्ण पक्ष है तथा यह स्वतंत्रता संग्राम का अभिन्न अंग है।
इस तथ्य पर ध्यान दिया जाए कि क्रांतिवाद क्षणभंगुर प्रकृति का नहीं रहा, बल्कि जब- जब अहिंसा के पथ पर विफलताओं और कमियों का सामना करना पड़ा, तब- तब इन क्षणों में भारतीय समाज में तथा जनता में बार- बार इस परंपरा ने राष्ट्रीय स्वाधीनता, संग्राम को सहारा दिया। हालांकि अरबिंदो घोष, बाल गंगाधर तिलक, बिपिनचंद्र पाल, लाला लाजपतराय आदि को अहिंसा के पुजारी नहीं कहा जा सकता, लेकिन वे सशस्त्र संग्राम के समर्थक भी नहीं थे। परन्तु इनका सशस्त्र संग्राम के सेनानियों पर गहरा प्रभाव पड़ा था। दूसरी ओर, अनेक क्रांतिकारी अपने पथ से निराश होकर सच्चे मन से कांग्रेस के कार्यकर्ता बन गए। इसलिए क्रांतिकारियों के योगदान को अभिस्वीकृति देना, मान्यता देना आवश्यक है।
लेकिन, यदि यह कहा जाता है कि इस मार्ग के अनुयायियों को पूर्ण या स्पष्ट रूप में पहचान नहीं मिली, तो यह जल्दबाजी में लिया गया निर्णय होगा। यहां तक कि, आज भी हममें से कुछ लोग इस मार्ग को स्वाधीनता संग्राम की मुख्य धारा मानते हैं। इनका यह विचार है कि हमारे स्वाधीनता संग्राम में पाई गई कमियों का यही कारण है कि कांग्रेस नेतागण ने क्रांतिवाद को संग्राम की मुख्य धारा के रूप में स्वीकार नहीं किया। लेकिन यह विचार अकाट्य है। यहां तक कि, अरबिंदो घोष तथा तिलक तथा उन जैसे समान विचारों वाले भी यही विश्लेषण करते रहे कि राजनीति में हिंसा के नैतिक महत्व का किस प्रकार से मूल्यांकन किया जाए। आज तक, हम अनुमान नहीं लगा पा रहे कि यह विवाद हमेशा के लिए निपटाया जा चुका है या नहीं।
कुछ लोगों के अनुसार, इन क्रांतिकारियों का जन साधारण के साथ संपर्क नहीं था तथा वे इतिहास के अंधेरे गलियारों में खो गए। इतिहासकारों का अन्य यह महसूस करता है कि प्रत्येक कदम पर क्रांतिकारियों ने अपनी भूलों से सीखा तथा अधिक ठोस और सफल तैयारी एवं एजेंडा के साथ आगे बढ़े। ऐतिहासिक रिकार्ड से इन दिनों दृष्टिकोणों के समर्थन में प्रमाण उपलब्ध है। लेकिन यह तथ्य निर्विवाद है कि क्रांतिकारियों ने भारत के इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ी है। आखिरकार, इन्होंने कोई समझौता किए बगैर सर्वप्रथम पूर्ण स्वतंत्रता की सशक्त मांग की थी।
सरकारी रिकार्ड में, इन्हें आतंकवादियांे के नाम से वर्णित किया गया है। निःसन्देह, कुछ क्रांतिकारियों ने निर्मम एवं अमानवीय कार्य किए थे। किसी हद तक हम उनके इस रवैये से विचलित हो जाते हैं कि यदि भारत में कहीं कोई अंग्रेज दिखाई देता है तो उसे ऐसे मार डालो, मानों वह कोई आवारा, गली का कुŸाा है। लेकिन आज हम जलियांवाला बाग तथा राॅलेट एक्ट की क्रूरता, निर्ममता को भूल चुके हैं। हमें यह भी याद नहीं है कि कानून व्यवस्था की आड़ में ब्रिटिश प्रशासन के औपनिवेशिक राज्य सरकारी मशीनरी का आतंकी तथा निष्ठुर चेहरा छिपा था।
क्रांतिकारियों के जवाबी आतंकवाद ने अपने देशवासियों में व्याप्त भय को दूर करने के साथ- साथ उनके मन में क्रांति की लौ जगाई तथा उनके उत्साह और आत्मविश्वास से लोगों को प्रेरणा मिली। उन्होंने यूरोपीयन आतंकवाद के सिद्धान्तों तथा तरीकों को भी अपनाया। लेकिन निःसन्देह रूप में राज्य मशीनरी की सŸाा पर काबू पाने के लिए सूर्यसेन ने सुयोजनाबद्ध रूप में साहसिक प्रयास किया था और इस प्रयास को गदर का नाम दिया गया। चूंकि इन्हें साधारण अपराधी या हिंसा के घोर पुजारी नहीं कहा जा सकता, अतः हम इन्हें क्रांतिकारी ही कहेंगे।
हालांकि, क्रांतिवाद भारत के सभी राज्यों तथा क्षेत्रों तक पहुंच गया था, लेकिन सर्वत्र इसका गहरा प्रभाव नहीं पड़ा। अधिकांशतः बंगाल, पंजाब तथा महाराष्ट्र और विशेष तौर पर इन राज्यों के छोटे- छोटे उपनगरों में क्रांतिवाद का निरंतर गहरा प्रभाव पड़ता रहा। लेकिन इस निर्भीक युवावर्ग के कार्यों से समूचा राष्ट्र ही हिल उठा।
सन्दर्भ- सूची
1. गोहाई, हीरेन- भारतीय स्वाधीनता संग्राम में क्रांतिकारियों का योगदान पृ0 8-9




                                                निष्कर्ष -  

पहले ही, यह उल्लेख किया जा चुका है कि यद्यपि शुरु में, रवीन्द्र नाथ टैगोर स्पष्ट शब्दों में क्रांति के मार्ग का खंडन करते थे, लेकिन, आगे चलकर उन्होंने भी साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार की अमानवीय क्रूरता का अनुभव किया। जब कांग्रेस के शीर्ष नेता ब्रिटिश सरकार के साथ समझौता करने के लिए बेचैन थे, तब गांधी जी ने सुभाषचंद्र बोस के अदम्य आदर्शवाद को याद किया था और उन्होंने अंडमान से अलीपुर सेंट्रल जेल में लाए जा रहे चटगांव के क्रांतिकारियों को ये शब्द कहे थे-
‘‘भले ही मेरे विचार आपके विचारों के इतने भिन्न हैं, उŸारी ध्रुव से दक्षिणी धु्रव। लेकिन, यदि मेरे साथ आप जैसे चंद समर्पित युवक होते, तो मैं बहुत पहले ही भारत का इतिहास बदल चुका होता।’’
अहिंसा, मानवतावाद के पथ के अनुयायी इन दो महान विचारक क्रांतिकारी पथ के प्रति सहानुभूति रखते थे तथा इसका सम्मान करते थे। क्रांतिकारियों की गतिविधियों को स्वतंत्रता संग्राम की छिटपुट घटनाएं नहीं माना जा सकता। बल्कि, ये राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के महत्वपूर्ण दौर हैं। और साथ ही, घटनाक्रम में आने वाले मोड़ की सूचक थी।
आज, प्रत्येक सजग और देशप्रेमी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास के गरिमामय तथा अविस्मरणीय अध्यायों के रूप में क्रांतिकारियों के योगदान की सराहना करनी होगी। इन वीरों का देश के प्रति गहन प्रेम, उनका आदर्शवाद तथा आत्म- बलिदान आधुनिक भारत के आध्यात्मिक कोष/खजाने का अमूल्य भाग है। आज जब अपने चारों ओर व्याप्त अनगिनत समस्याओं का समाधान ढूंढना चाहते हैं, तब हम इनके जीवन से, इन महान आत्माओं के विचारों से सार्थक पाठ सीख सकते हैं तथा प्रेरणा ले सकते हैं।
अंत में, हम इस संदर्भ पर आते हैं कि शक्तिशाली, प्रतिभाशाली, चरित्रवान सैकड़ों के युवकों के बलिदान के बावजूद  इस देश के लोग, इस देश की जनता ने उनका साथ क्यों  नहीं दिया? इस पर क्रांतिकारियों ने भी अपनी निराशा जताई है। लेकिन क्रांतिकारी मार्ग से लंबे समय तक जुड़े रहे भूपेन्द्रनाथ दŸा ने अपने जीवन की सांध्यवेला में यह स्वीकार किया कि जनता क्रांतिकारियों के आह्वान पर जड़वत् रही, क्योंकि यह आम जनता मध्यवर्ग से जुड़ी थी तथा देश के सर्वहारा वर्ग के लोगों के कष्टों के प्रति उदासीन रही। क्रांतिकारी इस बात को बहुत देर से समझे कि न तो धरती, न ही आध्यात्मिक संस्कृति, न ही किसी मूर्ति की ताकत बल्कि देश के जनसाधारण पर ही देश का वजूद टीका है। जब क्रांतिकारी दौर अपने चरम बिन्दु पर था, तब प्रतीत होता है कि ‘हिन्दुस्तान साशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ तथा ’नौजवान भारत सभा’ के हाथों में आंदोलन की बागडोर थी। भगतसिंह की शहादत अभी भी दिव्य आभा से दैदीप्यमान है। लेकिन जैसा कि ‘नेशनलिज्म एंड काॅलोनाइजेशन इन माडर्न इंडिया’ (1979) में विपिन चंद्र ने बताया है यह आंदोलन निम्न मध्यवर्ग के युवकों तक ही सीमित था तथा व्यवहार्यतः यह स्वयं को वैयक्तिक स्तर पर आतंकवाद के कृत्यों से अलग नहीं कर पाया। सैद्धान्तिक धरातल पर हुई प्रगति भी इस वस्तु स्थिति को बदल नहीं पाई।
पूर्व में ही इस पर विचार किया जा चुका है कि क्रांतिवाद की भूमिका का नैतिक और राजनीतिक पक्ष है। नैतिक धरातल पर मृत्यु का सामना करते हुए आत्म बलिदान और साहस तथा पूरी निष्ठा ने यकीनन निर्धन, अपमानित तथा दलित भारतीयों के मन में आत्मविश्वास उत्पन्न किया था, वहीं दूसरी ओर समय- समय पर बदले की भावना से निर्दोष ब्रिटिश लोगों की क्रूर हत्या से सजग भारतीयों को सकते में भी पहुंचाया। राजनैतिक धरातल पर कभी - कभी ये अंधाधुंध, बिना सोचे समझे, अतार्किक हिंसा की प्रवृŸिा के प्रभाव में मार्ग से विचलित हो जाते थे, और कभी इन्होंने अपने साथ जन आंदोलन के प्रभाव तथा ताकत से ब्रिटिश साम्राज्य के आधार स्तम्भों को हिला दिया। परवर्ती अवस्था पर, यह मार्ग वैयक्तिक उद्यम या पुरुषार्थ के स्थान पर जनता की भागीदारी में परिणत हो गया। इसलिये इस मार्ग को सीधे- सीधे भली- बुरी श्रेणी में लाना असंभव है। हर बात, हर विचार, हर कर्म समय और विद्यमान परिस्थिति पर टिका है।
लेकिन निःसंकोच यह कहा जा सकता है कि क्रांतिकारियों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की गति तेज करने तथा लक्ष्य प्राप्ति सुनिश्चित करने में मदद की। इनके निर्भीक एवं अनंत प्रयास तथा बलिदान का राष्ट्र की नसों में सर्वदा संचार होता रहेगा।



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